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अ०६/प्र०२
दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद का इतिहास / ४७१ "मूलसंघ स्त्री को महाव्रतारोपणरूप दीक्षा देने के विरोध में रहा होगा, क्योंकि उसके द्वारा सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग सम्भव नहीं था। --- इसके अतिरिक्त केवलिभुक्ति, केवली को कितने परीषह होते हैं, आदि कुछ तात्त्विक मान्यताओं को लेकर भी दोनों (निर्ग्रन्थों और यापनीयों) में मतभेद रहा होगा।" (जै.ध.या.स./ पृ.४७)।
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१. श्रुतकेवली भद्रबाहु के नेतृत्व में दक्षिणभारत गया निर्ग्रन्थश्रमणसंघ भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट तत्त्वज्ञान और आचारमार्ग का अनुयायी था। उसके पास उतना ही साहित्य मौजूद था, जितना उत्तरभारत से प्रस्थित होते समय तक निर्मित हो पाया था।
२. उसके दक्षिण भारत में पहुँचने के पाँच सौ वर्ष बाद (ईसा की द्वितीय शती में) वहाँ (दक्षिण) पहुँचा यापनीयसंघ जो आगम ले गया था, उन्हें उसने अमान्य कर दिया, क्योंकि उनमें साधुओं के लिए अपवादमार्ग के रूप में वस्त्रपात्रग्रहण करने की अनुमति थी तथा स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति का प्रतिपादन किया गया था। इससे यह सूचित होता है कि भद्रबाहुनीत निर्ग्रन्थसंघ के पास जो भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट तत्त्वज्ञान, आचारमार्ग और यत्किञ्चित् साहित्य था, उसमें सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति को स्वीकार नहीं किया गया था।
३. अतः ये सवस्त्रमुक्ति आदि की मान्यताएँ श्रुतकेवली भद्रबाहु के दक्षिण चले जाने के बाद उत्तरभारत में रहनेवाले श्रमणसंघ ने भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट आगमों में प्रक्षिप्त की हैं।
५. भदबाहोत तिरोन्थमंत्र के लिए धान उले उरने के एएलन रुलाएर में स्थित रहे निर्ग्रन्थश्रमणसंघ ने पंचमकाल में अचेलमार्ग को असंभव घोषित कर सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि की मान्यताएँ कल्पित कर ली और उनका आगमों में भी समावेश कर दिया। अतः वह एकान्त-सचेलमार्गी संघ बन गया। वीर नि० के ६०९ वर्ष बाद उसका भी विभाजन हुआ और उससे सचेलाचेलमार्गी यापनीयसंघ की उत्पत्ति हुई।
__यापनीयसंघ की उत्पत्ति के स्रोत एवं कारण पर प्रकाश डालते हुए डॉ० सागरमल जी लिखते हैं
__ "जब उत्तरभारत में प्रवर्तित महावीर के श्रमणसंघ में वस्त्रपात्र रखने का आग्रह जोर पकड़ने लगा, भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट एवं आचरित अचेलकत्व अर्थात् जिनकल्प का विच्छेद बताकर उसका उन्मूलन किया जाने लगा, तो शिवभूति प्रभृति
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