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द्वितीय प्रकरण डॉ० सागरमल जी का अन्तिम मत इतिहास-सम्मत
अनेक दिशाओं में भटकी विचारयात्रा । संघभेद के विषय में डॉ. सागरमल जी की विचारयात्रा अनेक दिशाओं में भटकी है। आठ वर्ष बाद वह सही दिशा प्राप्त कर सकी। सन् १९९६ में लिखित 'जैनधर्म का यापनीयसम्प्रदाय' नामक ग्रन्थ में पहले उन्होंने अपनी यह मान्यता व्यक्त की है कि भगवान् महावीर के संघ का प्रथम विभाजन श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय (ईसापूर्व चौथी शताब्दी) में हुआ था और दूसरा विभाजन ईसा की द्वितीय शताब्दी में (वीर निर्वाण के ६०९ वर्ष बाद) हुआ।२१ इस मान्यता का प्रकाशन उन्होंने निम्नलिखित वक्तव्यों में किया है
"यापनीयों के दक्षिण में प्रवेश के पूर्व भद्रबाहु के पहले या उनके साथ जो निर्ग्रन्थ श्रमणवर्ग दक्षिण चला गया था, वह अपने आप को 'निर्ग्रन्थ' ही कहता होगा, क्योंकि उस समय तक संघभेद या गणभेद नहीं हुआ था। --- निर्ग्रन्थसंघ मूलसंघ से भिन्न नहीं था, यह उन अचेल श्रमणों का वर्ग था, जो भद्रबाहु के पूर्व या भद्रबाहु के समय से दक्षिण भारत में विचरण कर रहे थे। (जै.ध.या.स./ पृ. ४५)।
"भद्रबाहु के पूर्व या उनके साथ जो मुनिसंघ दक्षिण की यात्रा पर गया था, वह यद्यपि अपने साथ महावीर का तत्त्वज्ञान और आचारमार्ग लेकर अवश्य गया था, किन्तु उनके पास मात्र उतना ही साहित्य रहा होगा, जितना भद्रबाहु के काल तक निर्मित हो पाया था। --- यापनीयसंघ, जो कि उनके बाद लगभग पाँच सौ वर्ष पश्चात् उत्तरभारत की निर्ग्रन्थधारा से अलग होकर दक्षिण भारत पहुंचा था,२२ वह अपने साथ जिन आगम ग्रन्थों को ले गया था, उनको मूलसंघ ने मानने से इनकार कर दिया होगा। क्योंकि उन ग्रन्थों में भी, चाहे वे अपवादमार्ग के रूप में ही क्यों न हों, वस्त्रपात्र आदि के उल्लेख तो थे ही। --- यापनीय वस्त्रपात्र को अपवादरूप से ग्राह्य मानते थे, क्योंकि उनके द्वारा मान्य आगमों और निर्मित ग्रन्थों, दोनों में ही अपवादरूप से इनके ग्रहण का उल्लेख मिलता है।" (जै.ध.या.स./ पृ.४६)। २१. देखिये, अध्याय २/प्रकरण ३/पादटिप्पणी ६१। २२. आगे चलकर डॉ० सागरमल जी ने यापनीयसंघ का उत्पत्तिकाल ईसा की पाँचवीं
शती का प्रथम चरण मान लिया, जो समीचीन है। (देखिये, अध्याय २ / प्रकरण ३/ शीर्षक १)।
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