SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 670
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ २ अ० ६ / प्र० २ आज का दिगम्बरसंघ भद्रबाहु -- -नीत अचेल निर्ग्रन्थसंघ का ही प्रतिनिधि आठ वर्षों के अन्तराल के बाद डॉक्टर सागरमल जी पुनः अपनी इस मान्यता की पुष्टि करते हैं कि दिगम्बरपरम्परा श्रुतकेवली भद्रबाहु के निर्ग्रन्थसंघ का ही वर्तमानरूप है। इस प्रकार दिगम्बरमत की ऐतिहासिकता के अनुसन्धान पर निकली उनकी विचारयात्रा आठ वर्ष बाद सही दिशा प्राप्त कर सकी। इसकी जानकारी सन् २००४ ई० में प्रकाशित उनके नवीन लघु ग्रन्थ जैनधर्म की ऐतिहासिक विकासयात्रा में मिलती है। उसमें वे लिखते हैं "जो कुछ ऐतिहासिक साक्ष्य मिले हैं, उनसे ऐसा लगता है कि निर्ग्रन्थसंघ अपने जन्मस्थल बिहार से दो दिशाओं में अपने प्रचार अभियान के लिए आगे बढ़ा। एक वर्ग दक्षिण बिहार एवं बंगाल से उड़ीसा के रास्ते तमिलनाडु गया और वहीं से उसने श्रीलंका और स्वर्णदेश (जावा - सुमात्रा आदि) की यात्राएँ की । लगभग ई० पू० दूसरी शती में बौद्धों के बढ़ते प्रभाव के कारण निर्ग्रन्थों को श्रीलंका से निकाल दिया गया। फलतः वे पुनः तमिलनाडु में आ गये। तमिलनाडु में लगभग ई० पू० प्रथम - द्वितीय शती से ब्राह्मी लिपि में अनेक जैन अभिलेख मिलते हैं, जो इस तथ्य के साक्षी हैं कि निर्ग्रन्थसंघ महावीर के निर्वाण के लगभग दो-तीन सौ वर्ष पश्चात् ही तमिल प्रदेश में पहुँच चुका था। मान्यता तो यह भी है कि आचार्य भद्रबाहु चन्द्रगुप्त मौर्य को दीक्षित करके दक्षिण गये थे । यद्यपि इसकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता निर्विवाद रूप से सिद्ध नहीं हो सकती है, क्योंकि जो अभिलेख घटना का उल्लेख करता है, वह लगभग छठी सातवीं शती का है। आज भी तमिल - जैनों की विपुल संख्या है और वे भारत में जैनधर्म के अनुयायियों की प्राचीनतम परम्परा के प्रतिनिधि हैं। ये नयनार एवं पंचमवर्णी के रूप में जाने जाते हैं। यद्यपि बिहार, बंगाल और उड़ीसा की प्राचीन जैनपरम्परा कालक्रम में विलुप्त हो गयी है, किन्तु सराक जाति के रूप में उस परम्परा के अवशेष आज भी शेष हैं । 'सराक' शब्द श्रावक का ही अपभ्रंशरूप है और आज भी इस जाति में रात्रिभोजन और हिंसक शब्दों जैसे काटो, मारो आदि के निषेध जैसे कुछ संस्कार शेष हैं । उपाध्याय ज्ञानसागर जी एवं कुछ श्वेताम्बर मुनियों के प्रयत्नों से सराक पुनः जैनधर्म की और लौटे हैं। Jain Education International "दक्षिण में गया निर्ग्रन्थसंघ अपने साथ विपुल प्राकृत जैन साहित्य तो नहीं ले जा सका, क्योंकि उस काल तक जैनसाहित्य के अनेक ग्रन्थों की रचना ही नहीं हो पायी थी। वह अपने साथ श्रुतपरम्परा से कुछ दार्शनिक विचारों एवं महावीर के For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy