SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 664
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ० ६ / प्र० १ 'भद्रबाहु और उनके शिष्यों के दक्षिण - प्रवास के पश्चात् जैनधर्म के पवित्र सिद्धान्त-ग्रन्थों का विस्मरण द्वारा नाश होने का भय उपस्थित हो गया और स्थूलभद्र एवं उनके शिष्यों ने एक परिषद् उन साधुओं की निमन्त्रित की, जो उधर ही रह गये थे। यह परिषद् ई० पूर्व तीसरी सदी में मौर्यसाम्राज्य की राजधानी एवं जैनसंघ के इतिहास में प्रसिद्ध पाटलिपुत्र में एकत्रित हुई थी । " जैनों की इस परिषद् ने", जैसा कि डॉ० शार्पेटियर कहता है, "बहुत कुछ वही कार्य किया होगा, जो बौद्धों की पहली संगीति याने परिषद् ने किया था।" इस परिषद् ने अंगों और पूर्वों दोनों का ही पाठ स्थिर किया और यहीं से सिद्धान्त की प्रथम भूमिका प्रारम्भ हुई। परन्तु दक्षिण से लौटनेवाले मुनियों को सिद्धान्त के इस प्रकार स्थिर किये गये पाठ से सन्तोष नहीं हुआ । उनने इस सिद्धान्त को मानने से इनकार ही नहीं किया, अपितु यह भी घोषित कर दिया कि पूर्वज्ञान और अंगज्ञान दोनों का ही विच्छेद हो गया है ।" (उत्तरभारत में जैनधर्म / पृ. १८४) । 44 आदरणीय श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री ने जो विचार प्रकट किये हैं, वे इस प्रकार हैं- " वीर निर्वाण १६० के लगभग भद्रबाहु के समय पाटलिपुत्र में जो आगमवाचना हुई, उस समय दोनों परम्पराओं का मतभेद उग्र हो गया। इसके पहले आगम के विषय में एकता थी, किन्तु दीर्घकाल के दुष्काल में अनेक श्रुतधर मुनि परलोकवासी हो गये। भद्रबाहु की अनुपस्थिति में ग्यारह अंगों का संकलन - आकलन हुआ पर वह सभी को समान रूप से मान्य नहीं हो सका और दोनों ही विचारधाराओं का मतभेद स्पष्टरूप से सामने आया। वीरनिर्वाण सं० ८२७- ८४० के बीच माथुरी वाचना हुई, उसमें जो श्रुत का रूप निश्चित हुआ वह अचेलक - समर्थकों को बिलकुल भी स्वीकार नहीं हुआ। इस तरह आचार और श्रुत के सम्बन्ध में मतभेद उग्र होते गये और वीर निर्वाण की छठी और सातवीं शताब्दी में एक निर्ग्रन्थ शासन दो भागों में विभक्त हो गया ।" (जै. आ.सा.म.मी./ पृ.५६३)। यहाँ मुनि जी ने वीरनिर्वाण की छठी और सातवीं शताब्दी में निर्ग्रन्थशासन के दो भागों में विभक्त होने की बात बोटिककथा के आधार पर कही है, किन्तु यह हम पहले ही देख चुके हैं कि बोटिक शिवभूति ने किसी नये मत का प्रचलन नहीं किया था, अपितु जिस जिनकल्प को जम्बूस्वामी के बाद विच्छिन्न मान लिया गया था, उसको अंगीकार किया था। अतः वास्तविक संघभेद जम्बूस्वामी के बाद ही हो गया था । माननीय डॉ० सागरमल जी ने भी अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के अपने अचेलकधर्म के सिद्धान्तों के साथ दक्षिणभारत जाने और उनके प्रचार करने की बात Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy