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अ०६/प्र०१
दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद का इतिहास / ४६७ एक और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यद्यपि भद्रबाहु को श्वेताम्बरपरम्परा भी अपना धर्मगुरु मानती है, तथापि श्वेताम्बरसम्प्रदाय की आचार्यपरम्परा का आरम्भ श्रुतकेवली भद्रबाहु से न होकर स्थूलभद्र (सम्भूतिविजय के शिष्य) से होता है। उनके यहाँ श्रुतकेवली भद्रबाहु की शिष्यपरम्परा का अभाव है और स्थूलभद्र को अन्तिम श्रुतकेवली लिखा है।
यहाँ पाँच घटनाएँ सामने आती हैं-१. दुर्भिक्ष के समय भद्रबाहु का संघ के साथ समुद्रतट की ओर न जाना, इसके विपरीत नेपाल चले जाना, २. यह जान लेने पर भी कि उन्होंने महाप्राण ध्यान आरंभ किया है, संघ द्वारा उन्हें बहिष्कृत करने की धमकी देना तथा ३. अन्ततः बहिष्कृत कर देना, ४. पाटलिपुत्र वाचना में उन्हें न बुलाया जाना और ५. स्थविरपरम्परा को उनके नाम से न चलाया जाना।
इन घटनाओं से सिद्ध होता है कि भद्रबाहु नवीन सचेलमार्गी प्रवृत्तियों के समर्थक नहीं थे, वे शुद्ध अचेलकधर्म के अनुयायी थे, इसलिए मूल निर्ग्रन्थसंघ (दिगम्बरसंघ) की आचार्यपरम्परा में उनका अन्तिम श्रुतकेवली के रूप में सम्मान्य स्थान था। इसी कारण नवीन सचेलमार्गी संघ उनसे अपनापन महसूस नहीं करता था और उन्हें पर्याप्त आदर नहीं देता था, तथापि उस संघ को दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग का ज्ञान उनसे ही उपलब्ध हुआ था, इसलिए संघ ने उनका नाम नाममात्र के लिए अपनी स्थविरपरम्परा में शामिल कर लिया। इस कारण दोनों परस्परविरुद्ध परम्पराओं में उनका नाम मिलता है। ____ श्वेताम्बर-साहित्य में उपलब्ध यह कथा भी, जिसमें भद्रबाहु को पाटलिपुत्रवाचना में आमन्त्रित न किये जाने और संघ से बहिष्कृत कर देने का उल्लेख है, इस बात की पुष्टि करती है कि भद्रबाहु के समय में मूल निर्ग्रन्थसंघ अचेल और सचेल (अर्धफालक) सम्प्रदायों में एक बार फिर विभाजित हो गया था।
भद्रबाहु और उनके अनुयायियों की अनुपस्थिति में आगमों के संकलन का जो कार्य किया गया, वह संघभेद का एक महान् कारण था, यह बात अनेक श्वेताम्बर विद्वानों और सन्तों ने स्वीकार की है। इतिहासकार श्री चिमनलाल जैचन्द शाह लिखते हैं
२०."तं जहा-थेरस्स णं अज्जजसभद्दस्स --- अंतेवासी दुबे थेराथेरे अज्ज संभूअविजए --
- थेरे अजभद्दबाहू --- । थेरस्स णं अज्जसंभूअविजयस्स --- अंतेवासी थेरे अज्ज थूलभद्दे --- । थेरस्स णं अज थूलभद्दस्स --- अंतेवासी दुबे थेरा ---।" कल्पसूत्रस्थविरावली। (पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री : जैन साहित्य का इतिहास। पूर्वपीठिका/ पा.टि.पृ. ३७९-३८०)।
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