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________________ ४६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ० ६ / प्र० १ महाप्राण ध्यान पूरा होने तक भद्रबाहु ने स्थूलभद्र को दश पूर्वों का अध्ययन कराया। पश्चात् वे दोनों पाटलिपुत्र आ गये और बाह्योद्यान में ठहरे। वहाँ स्थूलभद्र की बहनें अपने भाई के दर्शन करने आयीं। उन्होंने भद्रबाहु गुरु की वन्दना करके पूछा - " प्रभु, स्थूलभद्र कहाँ हैं?" उन्होंने कहा - " लघु देवकुल में हैं ।" तब वे वहाँ गयीं। उन्हें आती हुई देखकर आश्चर्यचकित करने के लिए स्थूलभद्र ने दस पूर्वों के अध्ययन के प्रभाव से अपने को सिंह बना लिया। बहनें घबरा गयीं और भद्रबाहु के पास जाकर बोलीं- " भगवन् ! भैया को तो सिंह ने खा लिया और वह अब भी वहाँ बैठा हुआ है।" आचार्य ने अपने उपयोग से जानकर कहा - " तुम लोग जाओ, वन्दना करो, वह तुम्हारे बड़े भाई ही हैं, सिंह नहीं ।" इस घटना के बाद आचार्य ने स्थूलभद्र को आगे वाचना देना बन्द कर दिया, क्योंकि उन्होंने सोचा कि ये पूर्वी की वाचना के पात्र नहीं हैं, ये ज्ञान का उपयोग ज्ञान के लिए न कर चमत्कार दिखलाने के लिए करते हैं। (परिशिष्टपर्व / ९ / ५५-११२) । किन्तु संघ के अत्याग्रह से अन्तिम चार पूर्वों की वाचना तो दी, पर अर्थ नहीं बताया और दूसरों को उसकी वाचना देने से स्पष्ट मना करा दिया। इस तरह अर्थ की दृष्टि से तो 'अन्तिम श्रुतकेवली' भद्रबाहु ही हैं। स्थूलभद्र शाब्दिक दृष्टि से चौदहपूर्वी थे और अर्थ की दृष्टि से केवल दसपूर्वी । "१७ " तित्थोगालीपइन्नय ( गाथा ७३० - ७३३) में लिखा है कि भद्रबाहु के उत्तर से नाराज होकर स्थविरों ने कहा - " संघ की प्रार्थना का अनादर करने से तुम्हें क्या दण्ड मिलेगा, इसका विचार करो। " भद्रबाहु ने उत्तर दिया - " मैं जानता हूँ कि संघ इस प्रकार के वचन बोलनेवाले का बहिष्कार कर सकता है।" तब स्थविर बोले - " तुम संघ की प्रार्थना का अनादर करते हो इसलिए श्रमणसंघ तुम्हारे साथ बारहों प्रकार का व्यवहार बन्द करता है । १९८ "इन उल्लेखों से जहाँ एक ओर संघ के साथ भद्रबाहु की खींचतान होने पर प्रकाश पड़ता है, वहाँ यह भी स्पष्ट हो जाता है कि पाटलिपुत्र की वाचना में भद्रबाहु उपस्थित नहीं थे। इस पर डॉ० जेकोबी ने लिखा है कि पाटलिपुत्र नगर में जैनसंघ ने जो अंग संकलित किये थे, वे केवल श्वेताम्बर - सम्प्रदाय के ही थे, समस्त जैनसंघ के नहीं थे, क्योंकि उस जैनसंघ में भद्रबाहु सम्मिलित नहीं थे । (सेक्रेड बुक्स आफ दी ईस्ट / जिल्द २२ की प्रस्तावना / पृ. ४३) १९ १७. कल्पसूत्र / सम्पादक : देवेन्द्र मुनिशास्त्री / विवेचन - सूत्र २०७ / पृ. २९० । १८. पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री : जैन साहित्य का इतिहास / पूर्वपीठिका / पृ. ४८९ । १९. वही / पृ. ४९० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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