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अ०६/प्र०१
दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद का इतिहास / ४६५
११ __ श्वेताम्बरसाहित्य में भद्रबाहु-विवाद-कथा श्वेताम्बर-साहित्य में भी भद्रबाहु के समय में बारह वर्ष का दुष्काल पड़ने का उल्लेख है। किन्तु उसके अनुसार भद्रबाहु दक्षिणापथ न जाकर नेपाल देश की ओर अकेले जाते हैं और शेष साधुसंघ निर्वाह के लिए समुद्र किनारे चला जाता है। उसमें संघ के साथ भद्रबाहु के विवाद का भी वर्णन है, जिसकी परिणति उन्हें संघ से निकाले जाने में होती है। कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने परिशिष्टपर्व में भद्रबाहु की कथा का वर्णन इस प्रकार किया है
भयंकर दुर्भिक्ष पड़ने पर साधुसंघ निर्वाह के लिए समुद्र तट की ओर चला गया। इस काल में श्रुत का अभ्यास न हो सकने से साधु उसे भूल गये। दुष्काल समाप्त होने पर सम्पूर्ण संघ पाटलिपुत्र में इकट्ठा हुआ और जिसको जिस अंग का जो अध्ययन या उद्देश याद था वह संकलित किया गया (सबको परस्पर जोड़कर साधुओं ने अपनी स्मृति में अंकित किया)। इस तरह ग्यारह अंग संकलित किये गये। किन्तु दृष्टिवाद का किसी को ज्ञान नहीं था, इसलिए उसके विषय में संघ सोच में पड़ गया। फिर उसे मालूम हुआ कि दृष्टिवाद के ज्ञाता भद्रबाहु हैं और वे नेपालदेश के मार्ग में स्थित हैं। संघ ने उन्हें बुलाने के लिए दो मुनि भेजे। मुनियों ने जाकर नमस्कार किया और हाथ जोड़कर निवेदन किया कि संघ ने आपको पाटलिपुत्र आने का आदेश दिया है।
भद्रबाहु बोले-"मैंने महाप्राण ध्यान का आरम्भ किया है, जो बारह वर्षों में पूर्ण होगा, इसलिए मैं अभी नहीं आ सकता।" मुनियों ने जाकर संघ को यह बात बतला दी। तब संघ ने अन्य दो मुनियों को बुलाकर आदेश दिया कि "तुम जाकर भद्रबाहु से पूछना कि जो श्रीसंघ का शासन नहीं मानता, उसे क्या दण्ड दिया जाना चाहिए? जब वे कहें कि संघ से बहिष्कृत कर देना चाहिए, तब उनसे उच्चस्वर में कहना-आप इसी दण्ड के योग्य हैं।" मुनियों ने जाकर भद्रबाहु से यही बात कही और उन्होंने भी वही उत्तर दिया। फिर भद्रबाहु ने कहा संघ मुझे बहिष्कृत न करे, मेरे पास कुछ मेधावी शिष्य भेज दे। मैं उन्हें प्रतिदिन सात वाचनाएँ दूंगा। इससे संघ का कार्य भी सिद्ध हो जायेगा और मेरे कार्य में भी बाधा नहीं आयेगी। मुनियों ने आकर संघ को यह वृतान्त सुनाया। तब संघ ने स्थूलभद्र आदि पाँच सौ साधुओं को भेजा। उनमें से केवल स्थूलभद्र ही वहाँ रुके, शेष उद्विग्न होकर चले आये।
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