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________________ ४६४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०६ / प्र०१ बात के प्रमाण हैं कि जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् ही संघभेद हो चुका था और दिगम्बर-श्वेताम्बर सम्प्रदाय अस्तित्व में आ गये थे। जम्बूस्वामी के बाद ही संघभेद होने का इससे भी बड़ा प्रमाण यह है कि उनके बाद दोनों सम्प्रदायों की आचार्यपरम्परा बिलकुल अलग-अलग हो जाती है। चार पीढ़ियों तक अर्थात् ७१ या श्वेताम्बरों के अनुसार ९२ वर्षों तक दोनों सम्प्रदायों में अलग-अलग आचार्यपरम्परा चलती रहती है। इसके बाद थोड़े समय (२९ या १४ वर्ष) के लिए केवल श्रुतकेवली भद्रबाहु ऐसे व्यक्ति आते हैं, जो दोनों परम्पराओं को मान्य होते हैं, किन्तु श्वेताम्बरसंघ में उनका दर्जा उपेक्षित और बहिष्करणीय होता है। उन्हें संघ से बहिष्कृत करने की धमकियाँ दी जाती हैं, आगमवाचना में आमन्त्रित नहीं किया जाता और अन्ततः संघ से बहिष्कृत कर दिया जाता है।५ उनके बाद दोनों सम्प्रदायों की आचार्यपरम्परा पुनः भिन्न-भिन्न हो जाती है। इससे प्रकट होता है कि भद्रबाहु भी यथार्थतः दिगम्बरपरम्परा में ही मान्य थे। श्वेताम्बरपरम्परा में भद्रबाहु के स्थान पर स्थूलभद्र को महत्त्व दिया गया है। इस तरह दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों का जन्म वस्तुतः जम्बूस्वामी के पश्चात् ही हो गया था अर्थात् वीर निर्वाण के ६२ या ६४ वर्ष बाद ही। अतः श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय में संघभेद मानना उचित नहीं है। हाँ, यह मानना ठीक है कि द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के कारण और भी अचेलक साधु , जो उज्जयिनी में रह गये थे अथवा सिन्धुदेश या सौराष्ट्र के वलभीपुर चले गये थे, वे अर्धफालक एवं भिक्षापात्र धारण करने लगे थे। उज्जयिनी लौटने पर उनमें से कुछ साधु पुनः दिगम्बर बन गये और कुछ साधु श्वेताम्बरसंघ में शामिल हो गये तथा शेष साधु लगभग ४५० वर्ष तक उसी रूप में विहार करते रहे।१६ पश्चात् वि० सं० १३६ में वलभीपुर में श्वेताम्बरों की तरह श्वेतकटिवस्त्र एवं प्रावरण धारण कर श्वेताम्बर बन गये। किन्तु यह संघभेद की द्वितीय घटना थी। इसके पूर्व जम्बूस्वामी के अनन्तर जो दिगम्बर-श्वेताम्बर भेद हुआ था, वह संघभेद की प्रथम घटना थी। सर्वथा अचेलमार्गी निर्ग्रन्थों का पहला सचेलीकरण (श्वेतकटिवस्त्र एवं श्वेत प्रावरणधारी के रूप में) तो परीषहपीड़ा से मुक्ति पाने के लिए हुआ था और दूसरा सचेलीकरण (केवल कलाई पर लटकते हुए अर्धफालकधारी के रूप में) दुर्भिक्ष में उदरपोषणार्थ स्वीकार किया गया। विक्रम सं० १३६ में वलभीपुर में राजमान्यता की लालसा से अर्धफालकधारियों का श्वेताम्बरीकरण हुआ था, अचेलकों का नहीं। इस तरह दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद और दिगम्बर-अर्धफालक-भेद, संघभेद की ये दो अलगअलग घटनाएँ थी। दूसरी घटना से श्वेताम्बरसंघ की वृद्धि हुई थी, शुरुआत नहीं। शुरुआत तो जम्बूस्वामी के बाद ही हो गई थी। १५. देखिए , अगला शीर्षक। १६. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ४ / ७७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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