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________________ अ०६/प्र०१ दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद का इतिहास / ४६३ निर्वाण के बाद से ही साधुओं का एक वर्ग वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादप्रौंछन आदि का उपयोग करने लगा था और यह प्रतिपादित करने लगा था कि ये संयम और लज्जा के साधन हैं, इसलिए भगवान् महावीर ने इन्हें परिग्रह नहीं कहा है, अपितु इनमें मूर्छा होने को परिग्रह कहा है और ये प्रतिपादन शास्त्रों के अंग बन गये थे। आचार्य शय्यंभव द्वारा रचित दशवकालिक सूत्र की पूर्वोद्धृत (अध्याय २/ पा. टि. १८ एवं ९५ में उद्धृत) गाथाओं से इसकी पुष्टि होती है। आचारांग और स्थानांगसूत्र में भी अशक्त मुमुक्षुओं के लिए लजा, जुगुप्सा और परीषह पीड़ा के निवारणार्थ वस्त्रपात्रादि के उपयोग को मोक्ष के अपवादमार्ग के रूप में विहित कर दिया गया था। यद्यपि श्वेताम्बर-मान्य आचारांगादि आगम पाँचवीं शती ई० में श्री देवर्द्धिगणी द्वारा वलभीनगर में प्रथमबार लिपिबद्ध किये गये थे,१३ तथापि उनका मौखिक सूत्रीकरण जम्बूस्वामी के पश्चात् एवं कुन्दकुन्द के पूर्व हुआ होगा, इसमें सन्देह नहीं, क्योंकि श्वेताम्बर-सम्प्रदाय जम्बूस्वामी के निर्वाणानन्तर ही अस्तित्व में आ गया था और कोई भी सम्प्रदाय नवीन सिद्धान्तों के निर्धारण के बिना न तो अस्तित्व में आ सकता है, न विकसित हो सकता है। सचेलाचेल धर्म के प्रतिपादक आचारांगादि आगम जम्बूस्वामी के पूर्ववर्ती सुधर्मा स्वामी द्वारा रचित हैं, यह मान्यता इस मान्यता पर आश्रित है कि भगवान् महावीर ने मोक्ष के लिए अचेल और सचेल दोनों धर्मों का उपदेश दिया था। किन्तु श्वेताम्बर-शास्त्रों में स्वयं कहा गया है कि भगवान् ऋषभदेव और महावीर ने अचेलधर्म का ही उपदेश दिया था, शेष तीर्थंकरों ने अचेल और सचेल दोनों का।१४ इससे सिद्ध है कि अचेल और सचेल उभय धर्मों के प्रतिपादक आचारांगादि आगम भगवान् महावीर के उपदेश पर आश्रित नहीं हैं। उनकी रचना जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् 'उदित हुए श्वेतपटसम्प्रदाय के आचार्यों द्वारा की गयी है। इस प्रकार जम्बूस्वामी के निर्वाणानन्तर मुनियों के एक वर्ग द्वारा वस्त्रपात्रादि के उपयोग का आरम्भ एवं शास्त्रों में उनकी संयमसाधकता का प्रतिपादन तथा उनके परिग्रह होने का निषेध इस १३. "श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणेन श्रीवीराद् अशीत्यधिकनवशत (९८०) वर्षे जातेन द्वादशवर्षीय दुर्भिक्षवशाद् बहुतरसाधुव्यापत्तौ बहुश्रुतविच्छित्तौ जातायां --- भविष्यद्भव्य-लोकोपकाराय श्रुतभक्तये च श्रीसङ्घाग्रहाद् मृतावशिष्टतदाकालीन-सर्वसाधून् वलभ्यामाकार्य तन्मुखादविच्छिन्नावशिष्टान् न्यूनाधिकान् त्रुटिताऽत्रुटितान् आगमालापकान् अनुक्रमेण स्वमत्या सङ्कलय्य पुस्तकारूढाः कृताः। ततो मूलतो गणधरभाषितानामपि तत्सङ्कलनानन्तरं सर्वेषामपि आगमानां कर्ता श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण एव जातः।" समयसुन्दरगणि-रचित 'सामाचारीशतक'/ पं० बेचरदासकृत 'जैनसाहित्य में विकार' पा. टि. / पृ. ९-१० से उद्धृत। १४. देखिए अध्याय ३/ प्रकरण १/शीर्षक ५। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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