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४६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०६/प्र०१ अर्धफालक सम्प्रदाय की उत्पत्ति नहीं बतलाते, उनके अनुसार वि० सं० १३६ में सीधे श्वेताम्बरसंघ का ही उदय हुआ था।
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विश्वसनीय अंश इन विसंगतियों के कारण उक्त कथाओं की सभी बातें विश्वसनीय नहीं हैं, कुछ ही विश्वासयोग्य हैं। यह विश्वासयोग्य है कि उज्जयिनी या मालवदेश में होनेवाले द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष को निमित्तज्ञान से जानकर अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु बारह हजार शिष्यों के साथ दक्षिणापथ गये और मार्ग में अथवा श्रवणबेलगोल में उनका समाधिमरण हुआ तथा दुर्भिक्ष समाप्त होने पर संघ विशाखाचार्य के नेतृत्व में उज्जयिनी या मध्यप्रदेश लौट आया। इन घटनाओं की विश्वसनीयता का कारण यह है कि ये श्रवणबेलगोल के पूर्वोक्त शिलालेख से मेल खाती हैं।
यह भी विश्वसनीय है कि जो साधु उज्जयिनी में रह गये थे या वहाँ से सिन्धुदेश अथवा सौराष्ट्रदेश के वलभीपुर नगर में चले गये थे, वे वहाँ के दुर्भिक्षजन्य संकटों के कारण भ्रष्ट हो गये थे। लोगों के कहने पर वे बायें हाथ पर अर्धफालक लटकाकर तथा दायें हाथ में भिक्षापात्र लेकर रात्रि में भिक्षाग्रहण करने के लिए जाने लगे थे
और भिक्षा को अपनी वसतिका में लाकर दिन में ग्रहण करते थे। यह विश्वसनीय इसलिए है कि अर्धफालक ग्रहण करने की बात मथुरा के कंकालीटीले से प्राप्त प्रथम-द्वितीय शताब्दी ई० के जैन पुरावशेषों से प्रमाणित होती है। वहाँ से प्राप्त एक शिलापट्ट में एक नग्न जैनसाधु बायें हाथ पर अर्धफालक (वस्त्रखण्ड) लटकाए हुए मूर्तित है। वह जैन यति आर्यकृष्ण की मूर्ति बतलायी गयी है।१२
यह भी संभव है कि इसके बहुत वर्षों बाद (विक्रम सं० १३६ में) अर्धफालक साधुओं ने सौराष्ट्र के वलभीपुर में पहुँचने पर वहाँ के राजा या रानी के कहने से श्वेतवस्त्र पहनने शुरू कर दिये हों, क्योंकि जो साधु दुर्भिक्ष के समय उदरपूर्ति के लिए श्रावकों के कहने पर अर्धफालक और पात्र ग्रहण कर सकते हैं, वे राजमान्यता प्राप्त करने के लिए राजा या रानी के कहने पर श्वेतवस्त्र भी धारण कर सकते हैं।
किन्तु यह विश्वसनीय नहीं है कि इन्हीं कारणों से या इन्हीं समयों में श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई थी, क्योंकि हम पूर्व में देख चुके हैं कि जम्बूस्वामी के १२. पं.कै.च.शास्त्री : जैन साहित्य का इतिहास / पूर्व पीठिका / पृ.३८२-३८३ तथा जैनेन्द्र सिद्धान्त
कोश/४/७८।
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