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________________ अ० ६ / प्र० १ दिगम्बर- श्वेताम्बर - भेद का इतिहास / ४६१ इन कथाओं में बड़ी विसंगतियाँ हैं । उन पर थोड़ी दृष्टि डाली जाय । प्रकार हैं 4 ९ विसंगतियाँ १. श्रवणबेलगोल के शिलालेख तथा आचार्य हरिषेण एवं भट्टारक रत्ननन्दी के अनुसार जिन भद्रबाहु ने द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष की भविष्यवाणी की थी, वे पंचम श्रुतकेवली भद्रबाहु थे, जिनकी मृत्यु वीरनिर्वाण संवत् १६२ ( ई० पू० ३६५) में हुई थी, किन्तु 'भावसंग्रह' एवं 'दर्शनसार' के कर्त्ता आचार्य देवसेन के अनुसार वे श्रुतकेवली भद्रबाहु से भिन्न थे। वे विक्रम संवत् १३६ ( ई० सन् ७९) में हुए थे । ११ वे इस २. शिलालेख एवं रत्ननन्दी के अनुसार भद्रबाहु शिष्यों सहित उज्जयिनी से दक्षिणापथ गये थे। हरिषेण और देवसेन ( भावसंग्रह) के अनुसार वे उज्जयिनी में ही रहे और मुनिसंघ को लेकर विशाखाचार्य ( चन्द्रगुप्त ) दक्षिणापथ गये थे। ३. शिलालेख के अनुसार भद्रबाहु ने समाधिमरण कटवप्र ( श्रवणबेलगोल की चन्द्रगिरि) पर किया था, किन्तु हरिषेण के अनुसार भाद्रपददेश में तथा रत्ननन्दी के अनुसार दक्षिणापथ के मार्ग में किया था । ४. हरिषेण का कथन है कि चन्द्रगुप्त का नाम विशाखाचार्य था, किन्तु रत्ननन्दी उन्हें चन्द्रगुप्त मुनि ही कहते हैं, विशाखाचार्य नाम किसी और के लिए प्रयुक्त करते हैं। शिलालेख, 'भावसंग्रह' और 'दर्शनसार' में उनका नाम ही नहीं है। ५. हरिषेण कहते हैं कि रामिल्ल, स्थविर स्थूल और भद्राचार्य दुर्भिक्ष के समय सिन्धुदेश गये थे, उधर रत्ननन्दी कहते हैं कि वे उज्जैन में ही रहे । देवसेन इनके बदले शान्त्याचार्य और उनके शिष्य जिनचन्द्र का वलभीपुर जाना मानते हैं । Jain Education International ६. देवसेन का कथन है कि वलभीपुर में जिनचन्द्र ने अपने गुरु शान्त्याचार्य की हत्या की थी, रत्ननन्दी कहते हैं - शिथिलाचारप्रेमी साधुओं ने उज्जयिनी में अपने गुरु स्थूलाचार्य का वध किया था। हरिषेण ने किसी के भी वध का उल्लेख नहीं किया । ७. हरिषेण और रत्ननन्दी पहले श्रुतकेवली भद्रबाहु की मृत्यु के बाद वीर निर्वाण संवत् १६२ (३६५ ई० पूर्व) में अर्धफालक सम्प्रदाय की उत्पत्ति बतलाते हैं, पश्चात् वि० सं० १३६ (७९ ई० ) में अर्धफालक सम्प्रदाय से श्वेताम्बर सम्प्रदाय की । देवसेन ११. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ४ / ७७ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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