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अ०६/प्र०१
दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद का इतिहास / ४५९
रत्ननन्दिकृत भद्रबाहुचरित (१६वीं शती ई०) उज्जयिनी नगरी में चन्द्रगुप्त नाम का राजा राज्य करता था। वहाँ अनेक देशों से विहार करते हुए आचार्य भद्रबाहु बारह हजार मुनियों के साथ आये और नगर के बाहर उपवन में ठहरे। चन्द्रगुप्त ने उनसे मुनिदीक्षा ग्रहण की। एक दिन आचार्य भद्रबाहु श्रेष्ठी जिनदास के यहाँ आहारदान के लिए पड़गाहे गये। जब वे घर में प्रविष्ट हुए , तो उन्होंने पालने में एक साठ दिन के शिशु को देखा। वह मुनिराज से बोला-'जाओ, जाओ।' भद्रबाहु ने पूछा-'कितने वर्षों तक?' शिशु ने उत्तर दिया-'बारह वर्षों तक।'
तब भद्रबाहु ने निमित्तज्ञान से जाना कि मालवदेश में बारह वर्ष का अकाल पड़नेवाला है। मुनिराज आहार किये बिना लौट आये और बारह हजार साधुओं के साथ दक्षिण की ओर रवाना हो गये। किन्तु रामल्य, स्थूलाचार्य और स्थूलभद्र आदि मुनि गुरु की आज्ञा का उल्लंघन कर उज्जैन में ही रुक गये।
दक्षिण की ओर विहार करते समय भद्रबाहु एक अटवी में पहुँचे। वहाँ अपनी मृत्यु का समय निकट जानकर एक कन्दरा में रुक गये। नवदीक्षित चन्द्रगुप्त मुनि भी उनकी परिचर्या के लिए ठहर गये। गुरु ने विशाखाचार्य (इस कथा में ये चन्द्रगुप्त से भिन्न हैं) को पट्ट पर नियुक्तकर उनके साथ संघ को दक्षिणदेश भेज दिया। भद्रबाहु ने उस अटवी में सल्लेखनापूर्वक शरीर का त्याग किया।
इधर उज्जयिनी में भयंकर अकाल पड़ा। वहाँ जो रामल्य, स्थूलभद्र आदि मुनि गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करके रह गये थे, वे दुर्भिक्षजन्य उपद्रवों से बहुत पीड़ित हुए। एक मुनि आहार लेकर जा रहे थे। भूखे लोगों ने उनका उदर फाड़ डाला और उसमें से अन्न निकाल कर खा गये। क्षधात लोग श्रावकों के द्वार पर पहँचकर भोजन माँगते थे। श्रावक भय से किवाड़ नहीं खोलते थे। एक दिन श्रावक साधुसंघ के पास पहुंचे और निवेदन किया कि हम लोग दिन में भोजन नहीं बना सकते, रात्रि में भोजन बनता है। इसलिए आप लोग रात्रि में हमारे गृहों से पात्रों में आहार ले जायँ और अपने स्थान पर ही दिन निकलने पर उसे ग्रहण करें। जब सुभिक्ष हो जायेगा, तब आप प्रायश्चित्त करके पुनः पूर्ववत् मुनिधर्म का पालन करें। साधुओं ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। उन्होंने तुम्बी के पात्र ग्रहण कर लिए तथा भिखारियों
और कुत्तों से रक्षा के लिए दण्ड भी रख लिये और रात्रि में श्रावकों के घर जाकर पात्रों में भोजन लाने लगे।
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