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४५८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०६/प्र०१ तथा सफेद वस्त्र धारण कर लिए और दीनतापूर्वक अन्न की याचना कर वसतिका में लाकर खाने लगे। ऐसा करते-करते बहुत दिन बीत गए। जब सुभिक्ष हुआ, तब शान्त्याचार्य ने कहा कि अब इस कुत्सित आचरण को छोड़ दो और अपनी निन्दागर्दा करके फिर से मुनियों का श्रेष्ठ आचरण ग्रहण करो।
इन वचनों को सुनकर उनके प्रधान शिष्य जिनचन्द्र ने कहा कि अब उस दुर्धर आचरण को कौन धारण कर सकता है? इस समय हम जो आचरण कर रहे हैं, वह बहुत सुखदायक है। उसे हम छोड़ नहीं सकते। तब शान्त्याचार्य ने उनके आचरण को निन्दनीय बतलाकर श्रेष्ठ जिनमार्ग को ग्रहण करने का पुनः आग्रह किया। इससे जिनचन्द्र बहुत रुष्ट हो गया। उसने सिर पर दण्डप्रहार करके गुरु को मार डाला तथा संघ का स्वामी बन गया। वह लोगों को उपदेश देने लगा कि सग्रन्थलिंग से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। उसने शास्त्र भी उसी के अनुरूप रच दिये। इस प्रकार विक्रम संवत १३६ में वलभीनगर में श्वेताम्बरसंघ उत्पन्न हआ।
इन्हीं देवसेन ने 'दर्शनसार' नामक ग्रन्थ में लिखा है-"विक्रम राजा की मृत्यु के १३६ वर्ष बाद सौराष्ट्र देश के वलभीपुर में श्वेतपट (श्वेताम्बर) संघ उत्पन्न हुआ। श्री भद्रबाहुगणी के शिष्य 'शान्ति' नाम के आचार्य थे। उनका 'जिनचन्द्र' नाम का एक शिथिलाचारी दुष्ट शिष्य था। उसने यह मत चलाया कि स्त्रियों को उसी भव में मोक्ष प्राप्त हो सकता है। केवलज्ञानी भोजन करते हैं और उन्हें रोग होना सम्भव है। वस्त्रधारी भी मुनि मोक्ष प्राप्त कर सकता है। महावीर का गर्भपरिवर्तन हुआ था। जिनलिंग के सिवाय अन्य लिंग से भी मुक्ति हो सकती है तथा प्रासुक भोजन सर्वत्र किया जा सकता है।"८ ५. देवसेन : भावसंग्रह (प्राकृत)/गा.५२-७५ (दर्शनसार/पृ.५५-५७/सम्पादक : नाथूराम प्रेमी)। ६. छत्तीसे वरिस सए विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स।
सोरटे उप्पण्णो सेवडसंघो हु बलहीए॥ ५२॥ भावसंग्रह। ७. भावसंग्रह (प्राकृत) और 'दर्शनसार', दोनों के कर्ता देवसेन एक ही व्यक्ति माने गये
हैं। (तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा / खण्ड २ / पृ. ३७०)। ८. एक्कस्सए छत्तीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स।
सोरट्टे वलहीए उप्पण्णो सेवडो संघो॥ ११॥ सिरिभद्दबाहुगणिणो सीसो णामेण संति आइरिओ। तस्स य सीसो दुट्ठो जिणचंदो मंदचारित्तो॥ १२ ॥ तेण कियं मयमेयं इत्थीणं अत्थि तब्भवे मोक्खो। केवलणाणीण पुण अण्णक्खाणं तहा रोगो॥ १३॥ अंबरसहिओ वि जइ सिज्झइ, वीरस्स गब्भचारत्तं । परलिंगे विय मुत्ती फासुयभोजं च सव्वत्थ ॥१४॥ दर्शनसार
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