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अ०६/प्र०१
दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद का इतिहास / ४५७ तावन्मध्याह्नवेलायां अर्धफालकसंघकः। भिक्षानिमित्तमायातो भूपतेरस्य मन्दिरम्॥ ७२॥ दृष्ट्वार्धफालकं सङ्ख कौतुकव्याप्तमानसः। महादेवीमिमां प्राह महीपालपुरस्सरम्॥ ७३॥ अर्धफालकसंघस्ते महादेवि न शोभनः । न चायं वस्त्रसंवीतो न नग्नः सविडम्बनः॥ ७४॥ ततोऽन्यस्मिन् दिने जाते चार्धफालकसंघकः। नगरान्तिकमायातः कौतुकार्थं कलस्वनः॥ ७५॥ दृष्ट्वाऽमुं भूपतिः सङ्ख बभाण वचसा हि सः। हित्वा तान्यर्धफालानि निर्ग्रन्थत्वं त्वमाश्रय॥ ७६ ॥ यदा निर्ग्रन्थता नेष्टा नपवाक्येन तैरिमे। तदा महीभृता प्रोक्ता भूयोऽप्याश्चर्यमीयुषा॥ ७७॥ यदि निर्ग्रन्थतारूपं ग्रहीतुं नैव शक्नुथ। ततोऽर्धफालकं हित्वा स्वविडम्बनकारणम्॥ ७८॥ ऋजुवस्त्रेण चाच्छाद्य स्वशरीरं तपस्विनः। तिष्ठत प्रीतचेतस्का मद्वाक्येन महीतले॥ ७९॥ लाटानां प्रीतिचित्तानां ततस्तदिवसं प्रति। बभूव काम्बलं तीर्थं वप्रवादनृपाज्ञया॥ ८०॥ ततः कम्बलिकातीर्थान्नूनं सावलिपत्तने। दक्षिणापथदेशस्थे जातो यापनसङ्घकः॥ ८१॥
भद्रबाहुकथानक।
देवसेनकृत भावसंग्रह ( प्राकृत ) की भद्रबाहुकथा (९३३-९५५ ई०)
उज्जयिनी में भद्रबाहु स्वामी ने निमित्तज्ञान से द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष की भविष्यवाणी की और सभी गणधरों को अपने-अपने संघों के साथ सुभिक्षवाले देश में चले जाने की आज्ञा दी। 'शान्ति' नामक आचार्य अपने संघ के साथ सौराष्ट्र देश के वलभीनगर गये। वहाँ भी बड़ा भारी अकाल पड़ गया। भूखे लोग दूसरों का पेट फाड़कर अन्न खाने लगे। इसलिए उदरपूर्ति में कठिनाई देखकर सुविधापूर्वक भोजन पाने के लिए उन्होंने निर्ग्रन्थ रूप का परित्याग कर दिया और कम्बल, दण्ड, भिक्षापात्र, प्रावरण
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