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४५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
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श्रुत्वा तद्वचनं सारं मोक्षावाप्तिफलप्रदम् । धुर्निर्ग्रन्थतां केचिन्मुक्तिलालसचेतसः ॥ ६४ ॥
रामिल्लः स्थविरः स्थूलभद्रायार्चस्त्रयोऽप्यमी । महावैराग्यसम्पन्ना विशाखाचार्यमाययुः ॥ ६५ ॥
त्यक्त्वाऽर्धकर्पटं सद्यः संसारात् त्रस्तमानसाः । नैर्ग्रन्थ्यं हि तपः कृत्वा मुनिरूपं दधुस्त्रयः ॥ ६६ ॥ संसारार्णवतारकम्।
इष्टं न यैर्गुरोर्वाक्यं जिनस्थविरकल्पं च विधाय द्विविधं भुवि ॥ ६७ ॥
अर्धफालक संयुक्तमज्ञात परमार्थकैः । तैरिदं कल्पितं तीर्थं कातरै:
अ० ६ / प्र० १
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शक्तिवर्जितैः ॥ ६८ ॥
भद्रबाहुकथानक ।
उसके बाद की घटना इस प्रकार है- सौराष्ट्र देश में वलभी नाम की नगरी है । उसमें वप्रवाद नाम का मिथ्यादृष्टि राजा राज्य करता था । उसकी 'स्वामिनी' नाम की पटरानी थी। वह अर्धफालकधारी साधुओं की भक्त थी । एक दिन राजा रानी के साथ बैठा हुआ गवाक्षों से नगर की शोभा देख रहा था । उसी समय अर्धफालकसंघ के साधु भिक्षा के लिए राजमहल में आये। उन्हें देखकर राजा को बड़ा कुतूहल हुआ। वह अपनी रानी से बोला - "देवि, तुम्हारे ये अर्धफालक साधु अच्छे नहीं लगते । न तो ये वस्त्रावृत ही हैं, न नग्न।" एक दिन जब वे पुनः वहाँ आये तब राजा ने उनसे कहा - " आप लोग अर्धफालक छोड़कर निर्ग्रन्थता अंगीकार लें। यदि निर्ग्रन्थता अंगीकार करने में आप असमर्थ हों, तो इस उपहासास्पद अर्धफालक को त्यागकर मेरे कहने से ऋजुवस्त्र से शरीर आच्छादित कर विचरण करें। साधुओं ने वैसा ही किया। उस दिन से राजा वप्रवाद की आज्ञा से लाट देश में काम्बल - तीर्थ (श्वेताम्बर सम्प्रदाय) प्रवर्तित हुआ। तदनन्तर दक्षिणापथ में स्थित सावलिपत्तन नामक नगर में उस काम्बल - सम्प्रदाय से यापनीयसंघ की उत्पत्ति हुई
सौराष्ट्रविषये दिव्ये विद्यते वलभी पुरी ।
वप्रवादो नृपोऽस्यां च मिथ्यादर्शनदूषितः ॥ ६९ ॥
बभूव तन्महादेवी स्वामिनी नाम विश्रुता । अर्धफालकयुक्तानां सेयं भक्ता तपस्विनाम् ॥ ७० ॥
अन्यदाऽयं नृपस्तिष्ठन् गवाक्षे सौधगोचरे । स्वामिन्या प्रियया सार्धं पश्यति स्वपुरश्रियम् ॥ ७१ ॥
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