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अ०६/प्र०१
दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद का इतिहास / ४५५ अन्यदैको मुनिःकोऽपि निर्ग्रन्थः क्षीणविग्रहः। भिक्षापात्रं करे कृत्वा विवेश श्रावकगृहम्॥ ५४॥ तत्रैका श्राविका मुग्धाऽभिनवा गुर्विणी तदा। अन्धकारे मुनिं दृष्ट्वा तत्र सा गर्भमागतम्॥ ५५॥ तदर्शनभयात् तस्याः स गर्भः पतितो द्रुतम्। दृष्ट्वाऽमुं श्रावकाः प्राप्य यतीशानिदमूचिरे॥ ५६॥ विनष्टः साधवः कालः प्रायश्चित्तं विधाय च। काले हि सुस्थतां प्राप्ते भूयस्तपसि तिष्ठत॥ ५७॥ यावन्न शोभन: कालो जायते साधवः स्फुटम्। तावच्च वामहस्तेन पुरः कृत्वाऽर्धफालकम्॥ ५८॥ भिक्षापात्रं समादाय दक्षिणेन करेण च। गृहीत्वा नक्तमाहारं कुरुध्वं भोजनं दिने॥ ५९॥ श्रावकाणां वचः श्रुत्वा तदानीं यतिभिः पुनः। तदुक्तं सकलं शीघ्र प्रतिपन्नं मनःप्रियम्॥ ६०॥
भद्रबाहुकथानक। जब सुभिक्ष हो गया तब रामिल्ल, स्थूलवृद्ध तथा भद्राचार्य ने अपने-अपने साधुओं को बुलाकर कहा-"अब आप लोग अर्धफालक को छोड़कर मोक्ष के लिए निर्ग्रन्थरूप धारण कर लें।" उनके वचन सुनकर कुछ साधुओं ने निर्ग्रन्थरूप धारण कर लिया। रामिल्ल, स्थूल-वृद्ध और भद्राचार्य, ये तीनों भी विशाखाचार्य के पास गये और उन्होंने अर्धवस्त्र' को छोड़कर मुनि का निर्ग्रन्थरूप धारण कर लिया। किन्तु , जिन्हें गुरु का वचन अच्छा नहीं लगा, उन परमार्थ को न जाननेवाले शक्तिहीनों ने जिनकल्प और स्थविर-कल्प का भेद करके (दो प्रकार का मोक्षमार्ग कल्पित करके) यह अर्धफालक-तीर्थ चला दिया
एवं कृते सति क्षिप्रं काले सुस्थत्वमागते। सुखीभूतजनवाते
दैन्यभावपरिच्युते॥ ६१॥ रामिल्लस्थविरस्थूलभद्राचार्याः स्वसाधुभिः। आहूय सकलं संघमित्थमूचुः परस्परम्॥ ६२॥ हित्वाऽर्धफालकं तूर्णं मुनयः प्रीतमानसाः। निर्ग्रन्थरूपतां सारामाश्रयध्वं विमुक्तये॥ ६३॥
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