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________________ ४५२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०६ /प्र०१ इतिहासविद् माननीय कस्तूरमल जी बाँठिया का भी मन्तव्य है कि "वस्त्रत्व और नग्नत्व को लेकर 'धर्मनायकत्व' जम्बूकेवली के मोक्षगमन पश्चात् दो पृथग्धाराओं में विभाजित हो ही गया। हो सकता है कि इसको वर्तमानरूप भद्रबाहु श्रुतकेवली के पश्चात् ही किसी समय मिला हो, क्योंकि उन तक तो दोनों ही सम्प्रदायों के अनुसार द्वादशांग और चौदह पूर्वो का ज्ञान अविच्छिन्नरूप से चला ही आया था।" ('जैन इतिहास का अरुचिकर पृष्ठ'/ जैन सिद्धान्त भास्कर / दिसम्बर १९७८ पृ. /२०)। ___ श्वेताम्बर साध्वी संघमित्रा जी ने भी लिखा है कि "आचार्य जम्बू के बाद वीर नि० ६४ (वि० पू० ४०६) से श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय के आचार्यों की परम्परा भिन्न हो गयी थी।" (जैनधर्म के प्रभावक आचार्य / पृ.७)। द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष से पुनः संघभेद जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् निर्ग्रन्थ श्रमणसंघ में जो सर्वप्रथम विभाजन हुआ, उसमें श्रुतकेवली भद्रबाहुकालीन दुर्भिक्ष के थपेड़ों ने और योगदान किया। पहले तो शीतादिपरीषहों की पीड़ा सहने में असमर्थ साधुओं ने अचेलत्व छोड़कर वस्त्रपात्रादि ग्रहण किये थे, किन्तु इस द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष में आहारप्राप्ति में उत्पन्न कठिनाइयों के कारण अनेक साधु अचेलत्व छोड़कर वस्त्रपात्रादिधारी बन गये। दिगम्बर-आचार्य-परम्परा में जिन्हें अन्तिम श्रुतकेवली माना गया है और श्वेताम्बर परम्परा में जिनकी संभूतिविजय के अनन्तर गणना की गई है, उन आचार्य भद्रबाहु के समय (वीर नि० १६२) में उत्तरभारत में पड़े द्वादशवर्षीय भीषण दुर्भिक्ष का उल्लेख दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के साहित्य में उपलब्ध होता है। अतः इसकी सत्यता में सन्देह की गुंजाइश नहीं है। ६०० ई० के शिलालेख में दुर्भिक्ष का उल्लेख श्रवणबेलगोल के चन्द्रगिरि पर स्थित पार्श्वनाथ वसति के पास का शिलालेख इस सम्बन्ध में सबसे प्राचीन प्रमाण है। यह लेख श्रवणबेलगोल के शिलालेखों में सबसे प्राचीन माना जाता है। इसमें लिखा है-"महावीर स्वामी के पश्चात् गौतम, लोहार्य, जम्बू, विष्णुदेव, अपराजित, गोवर्द्धन, भद्रबाहु, विशाख, प्रोष्ठिल, कृत्तिकार्य, जय, सिद्धार्थ, धृतिषेण, बुद्धिल आदि गुरुओं की परम्परा में हुये भद्रबाहु स्वामी ने उज्जयिनी में अपने काल्यदर्शी निमित्तज्ञान के द्वारा यह कथन किया कि वहाँ बारह वर्ष का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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