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अ०६/प्र०१
दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद का इतिहास / ४५३ दुर्भिक्ष पड़नेवाला है, तब सारा संघ उत्तरापथ से दक्षिणापथ की ओर प्रस्थित हो गया। क्रम से वह बहुत समृद्धिशाली जनपद में पहुँचा। वहाँ पहुँचकर भद्रबाहु स्वामी ने संघ को आगे बढ़ने की आज्ञा दे दी और स्वयं प्रभाचन्द्र नाम के शिष्य के साथ कटवप्र (चन्द्रगिरि) पर ठहर गये। उन्होंने वहीं समाधिमरण किया।
इस अभिलेख में दुर्भिक्ष की आशंका से भद्रबाहु के संघसहित उत्तर भारत से दक्षिण भारत में पहँचने मात्र का उल्लेख है। दर्भिक्षजन्य संकट से अर्धफालकसंघ का जन्म और उससे श्वेताम्बर-सम्प्रदाय की उत्पत्ति कैसे हुई, इसका वर्णन नहीं है। इसका वर्णन 'बृहत्कथाकोश' के कर्ता हरिषेण ने, 'भावसंग्रह' (प्राकृत) के कर्ता देवसेन ने तथा 'भद्रबाहुचरित्र' के लेखक रत्ननन्दी ने किया है।
बृहत्कथाकोश का भद्रबाहुकथानक ( ई. सन् ९३१)
अर्धफालकसंघ एवं काम्बलतीर्थ आचार्य हरिषेण ने बृहत्कथाकोश के १३१ वें भद्रबाहुकथानक में अर्धफालक, श्वेताम्बर और यापनीय संघों की उत्पत्ति का वर्णन इस प्रकार किया है-एक बार अवन्तीदेश की उज्जयिनी नगरी में महामुनि भद्रबाहु चतुर्विध संघ के साथ आकर क्षिप्रा नदी के किनारे उपवन में ठहरे। उस समय चन्द्रगुप्त उस नगरी का राजा था। वह सम्यग्दृष्टि श्रावक था। एकदिन भद्रबाहु भिक्षा के लिए भ्रमण करते हुए एक घर में प्रविष्ट हुए। वह घर सूना था। केवल झूले में एक शिशु झूल रहा था। उसने कहा-"भगवन् यहाँ से शीघ्र चले जाइये।" दिव्यज्ञानी भद्रबाहु ने उसके वचन सुनकर समझ लिया कि इस देश में बारह वर्ष तक वर्षा नहीं होगी। वे आहार ग्रहण किये बिना ही लौट गये। आकर उन्होंने संघ से कहा कि इस देश में बारह वर्ष का भीषण अकाल पड़नेवाला है। यह धनधान्य समन्वित, जनाकीर्ण देश चोरों और लुटेरों के उपद्रव से शीघ्र ही खाली हो जायेगा। मेरी आयु बहुत कम बची है। अतः मैं यहीं रहूँगा। आप सब साधु समुद्र के समीप चले जाएँ।
यह सुनकर राजा चन्द्रगुप्त ने उनसे मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली। उनका नाम विशाखाचार्य रखा गया। वे दशपूर्वियों में प्रथम हुए और संघ के अधिपति बना दिये गये। गुरु की आज्ञा से समस्त संघ उनके साथ दक्षिणापथ के पुन्नार नगर को चला गया। किन्तु रामिल्ल, स्थूलवृद्ध तथा भद्राचार्य ये तीन अपने-अपने संघ के साथ सिन्धु आदि देशों में गये। भद्रबाहुस्वामी ने भाद्रपद देश मे जाकर समाधिमरणपूर्वक शरीर त्याग दिया। ४. जैनशिलालेखसंग्रह / माणिकचन्द्र / लेख १ / शक सं. ५२२ (ई.सन् ६००)।
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