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________________ अ० ६ / प्र० १ दिगम्बर - श्वेताम्बर - भेद का इतिहास / ४५१ माननीय पण्डित कैलाशचन्द्र जी शास्त्री भी पं० बेचरदासजी के उक्त विचारों से सहमत हैं। वे लिखते हैं- " जम्बूस्वामी के बाद से ही सुखशील शिथिलाचारी पक्ष अँगड़ाई लेना शुरू कर दिया था और भद्रबाहु के समय में बारह वर्ष के भयंकर दुर्भिक्ष के थपेड़ों ने तथा श्रुतकेवली भद्रबाहु की दक्षिण - यात्रा ने उसे उठकर बैठने का अवसर दिया तथा बौद्ध साधुओं के मगध में बढ़ते हुए प्रभाव ने और उनके आचार-विचार ने उसे खड़ा कर दिया।" (जै.सा. इ. / पू.पी. / पृ.४८७-४८८)। श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री कहते हैं- " आर्य जम्बू के पश्चात् श्वेताम्बर दृष्टि से दस वस्तुएँ विच्छिन्न हो गईं। उनमें से एक जिनकल्पिक अवस्था भी है। यह कथन भी परम्पराभेद को पुष्ट करता है।" (जै. आ.सा.म.मी./ पृ.५६२) । जम्बूस्वामी के बाद जो संघभेद की प्रवृत्ति आरंभ हुई, वह श्वेताम्बर - परम्परानुसार जम्बूस्वामी के ३४ वर्ष बाद हुए आचार्य शय्यंभवकृत 'दशवैकालिक' में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। उसमें अचेलकतावादियों द्वारा वस्त्रपात्रादि को परिग्रह कहे जाने का खुल्लमखुल्ला विरोध किया गया है। कहा गया है जं पि वत्थं व पायं वा कंबलं पायपुंछणं । तंपि संजमलज्जट्ठा धारंति परिहरंति अ॥ ६/१९॥ न सो परिग्गहो वृत्तो नायपुत्तेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इय वुत्तं महेसिणा ॥ ६ / २० ॥ अनुवाद - " साधु जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादप्रौंछन धारण करता है और उपयोग करता है, वह संयम के पालन और निर्लज्जता से बचने के लिए करता है । उन वस्त्रपात्रादि के रखने को भगवान् महावीर ने परिग्रह नहीं कहा है, अपितु उनमें मूर्च्छा करने को परिग्रह कहा है । " इस पर श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री लिखते हैं- " सम्भवतः प्रभव स्वामी ३ के समय में ही परस्पर में मतभेद के बीज पनपने लगे होंगे। दशवैकालिक सूत्र में आचार्य शय्यम्भव ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि वस्त्र रखना परिग्रह नहीं है । संयम और लज्जा के निमित्त वस्त्र रखने को भगवान् महावीर ने परिग्रह नहीं कहा है। इस कथन से ऐसा लगता है कि उस समय संघ में आन्तरिक मतभेद प्रारंभ हो गया था । " (जै.आ.सा.म.मी./पृ.५६२) । ये उद्गार मुनिश्री ने दिगम्बर - श्वेताम्बर - संघभेद के विषय में प्रकट किये हैं । Jain Education International ३. जम्बूस्वामी के बाद वीरनिर्वाण सं० ७५ के लगभग हुए चतुर्दशपूर्वी आचार्य । For Personal & Private Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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