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________________ ४५० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०६/प्र०१ है, इसलिए हम उसका आचरण कर ही नहीं सकते। दूसरा गरम दल जिनकल्प का पक्षपाती था और जिनकल्प के आचरण का हिमायती था। इन दोनों दलों के मतभेद का ही उल्लेख बौद्ध ग्रन्थों में हुआ हो, ऐसा इस गाथा के जंबुम्मि वुच्छिण्णा पद पर से हम सरलतापूर्वक अनुमान कर सकते हैं। इस विषय को दिगम्बरों की पट्टावली भी पुष्ट करती है। श्वेताम्बरों और दिगम्बरों की पट्टावली में श्रीवर्धमान, सुधर्मा तथा जम्बूस्वामी तक के नाम समान रीति से और एक ही क्रम से उल्लिखित पाये जाते हैं, परन्तु उसके बाद आनेवाले नामों में सर्वथा भिन्नता प्रतीत होती है और वह भी इतना विशेष भिन्नत्व है कि जम्बूस्वामी के बाद उनमें से एक भी नाम पूरे तौर पर नहीं मिलता। इस प्रकार जम्बूस्वामी के बाद ही ये पट्टावलियाँ जुदी-जुदी गिनी जाने लगीं। यदि इसका कोई कारण हो, तो वह एकमात्र यही है कि जिस समय से सर्वथा जुदे-जुदे पट्टधरों के नामों की योजना प्रारंभ हुई, उसी समय से जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद वर्धमान के साधुओं में भेद पड़ चुका था। वह पड़ा हुआ भेद धीरे-धीरे द्वेष व विरोध के रूप में परिणत होता रहा। उस समय जो स्वयं मुमुक्षु पुरुष थे, वे तो यथाशक्य उच्च त्यागाचरण सेवन करते थे और जो पहले से ही सुखशीलता के गुलाम बन चुके थे, वे कुछ मर्यादित छूट रखकर पराकाष्ठा के त्याग की भावना रखते थे। अर्थात् जम्बूस्वामी के बाद भी उन मुमुक्षुओं में से कई एक तो भगवान् महावीर के कठिन त्यागमार्ग का ही अनुसरण करते थे और कई एक जिन्होंने परिमित छूट ली थी, वे कदाचित् अथवा निरन्तर एकाध कटिवस्त्र रखते होंगे, पात्र भी रखते होंगे तथा निरन्तर निर्जन वनों में न रह कर कभी बस्तियों में भी रहते होंगे।" ('जैन साहित्य में विकार'/ पृ.४१-४३)। पं० बेचरदास जी ने यह विचार भी व्यक्त किया है कि "महावीर निर्वाण के बाद जम्बूस्वामी तक के समय में बुद्धदेव के मध्यममार्ग ने काफी लोकप्रियता प्राप्त कर ली थी और सम्राट अशोक के समय में तो वह प्रायः सर्वव्यापी हो चुका था। उस समय चारों ओर बौद्धमठ स्थापित किये गये। बौद्धश्रमण लंका आदि देशों में प्रचारार्थ गये। इस मध्यममार्ग की प्रवृत्ति जितनी लोकोपयोगी थी, उतनी ही भिक्षुओं के लिए सरल और सुखद थी। श्रीवर्धमान स्वामी के कठिन त्यागमार्ग से खिन्न हुए जैनसाधुओं पर बौद्धों के इस सरल और लोकोपयोगी मध्यममार्ग का असर होना सहज बात है। जम्बूस्वामी के पश्चात् जिनकल्प विच्छिन्न होने के कथन का अभिप्राय यह हो सकता है कि पूर्व के कठोरमार्ग में नरमाई आई और धीरे-धीरे वनवासी चैत्यवासी बन गये।"२ २. 'जैन साहित्य में विकार'/ पृ. १८२-१८६ तथा 'जैन साहित्य का इतिहास' (गुजराती/ पृ. ९४) (पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री : जैन साहित्य का इतिहास / पूर्वपीठिका/पृ. ४८८, पादटिप्पणी में उद्धृत)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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