________________
अ०६/प्र०१
दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद का इतिहास / ४४९ “अर्थात् जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद निम्नलिखित दस बातें विच्छेद को प्राप्त हो गई है। १. मन:पर्ययज्ञान, २. परमावधि ज्ञान, ३. पुलाकलब्धि, ४. आहारक शरीर, ५.क्षपकश्रेणी, ६. उपशमश्रेणी, ७. जिनकल्प, ८. संयमत्रिक (यथाख्यात संयम, परिहारविशुद्धि संयम और सूक्ष्मसंपराय संयम) ९. केवलज्ञान और १०.सिद्धिगमन।" इससे यह बात स्पष्ट मालूम हो जाती है कि जम्बूस्वामी के बाद जिनकल्प का लोप हुआ बतला कर अब से जिनकल्प की आचरणा को बन्द करना और उस प्रकार आचरण करनेवालों का उत्साह या वैराग्य भंग करना, इसके सिवा इस उल्लेख में अन्य कोई उद्देश्य मुझे मालूम नहीं देता। मैं सिर्फ जिनकल्प के लोप होने का ग्रन्थपाठ बतला सकता हूँ, परन्तु वह पाठ कब का है? और किस का रचा हुआ है? इस विषय में कुछ नहीं कह सकता। तथापि इस पाठ को देवर्धिगणी के समय तक का मानने में कोई सन्देह मालूम नहीं देता, अर्थात् इस पाठ का आशय परम्परा से चला आता हो और इसी से सूत्रग्रन्थों में भी इसे श्रीदेवर्धिगणी जी ने समाविष्ट कर दिया हो, तो यह सम्भावित है। जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद जो जिनकल्प-विच्छेद होने का वज्रलेप किया गया है और उसकी आचरणा करनेवाले को जिनाज्ञा के बाहर समझने की जो स्वार्थी एवं एकतरफा दम्भी धमकी का ढिंढोरा पीटा गया है, बस इसी में श्वेताम्बरता और दिगम्बरता के विषवृक्ष की जड़ समाई हुई है। तथा इसके बीजारोपण का समय भी वही है, जो जम्बूस्वामी के निर्वाण का समय है। इस गवेषणा के उपरान्त भी, उसी समय में इसके प्रारंभ के और भी अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनमें से एक बौद्धग्रन्थों और दूसरा दिगम्बरों की पट्टावली में मैंने स्वयं अवलोकित किया है। बुद्धधर्मानुसारी सूत्रपिटक के 'मज्झिमनिकाय' नामक ग्रन्थों में से एक में इस विषय का उल्लेख मिलता है कि "ज्ञातपुत्र (वर्धमान) के निर्ग्रन्थों में मतभेद हुआ था।" उपर्युक्त जिनकल्प विच्छिन्न होने का जो उल्लेख किया गया है. उसका अभिप्राय यह है कि जम्बस्वामी के पीछे अर्थात् वर्धमान के निर्वाण बाद ६४वें वर्ष में उनके मुनियों में दो दल हो गये थे, जिनमें से एक नरम दल कहता था कि अब जिनकल्प का विच्छेद हो गया १. "एवं मे सुतं-एकं समयं भगवा सक्केसु विहरति सामगामे। तेन खो पन समयेन निगंठो
नातपुत्तो पावायं अधुनाकालङ्कतो होति। तस्स कालङ्किरियाय भिन्ना निगण्ठा द्वेधिकजाता, भण्डनजाता, कलहजाता, विवादापन्ना अमचं मुखसत्तीहि वितुदन्ता विहरन्ति।" सामगामसुत्त/ मज्झिमनिकायपालि/३-उपरिपण्णासक/प्र.१०५७। अनुवाद-मैंने ऐसा सुना है कि एक समय भगवान् बुद्ध शाक्यों के सामग्राम में साधना हेतु विराजमान थे। उस समय निर्ग्रन्थ ज्ञातिपुत्र (जैन-तीर्थंकर महावीर) का पावानगरी में अभी-अभी देहावसान हुआ था। उनके देहावसान के तत्काल बाद जैन साधु धीरेधीरे दो भागों में विभक्त होते चले गये। वे परस्पर कलह करते, वाद करते तथा एकदूसरे को अपशब्द बोलते हुए इधर-उधर घूमने लगे।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org