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________________ ४४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ० ६ / प्र० १ की क्षमता लोगों में शेष रह गयी। इस श्वेताम्बर - मान्यता से भी इस बात की पुष्टि होती है कि जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् मूल जैनसंघ में श्वेताम्बर - दिगम्बर का भेद उत्पन्न हो गया था । साधुओं के एक वर्ग ने अचेलत्व का सर्वथा परित्याग कर दिया था और खुल्लमखुल्ला वस्त्रधारण कर यह प्रतिपादित करने लगा था कि वस्त्रपात्रादि ग्रहण किये बिना मोक्ष नहीं हो सकता, क्योंकि वस्त्रपात्रादि संयम के अनिवार्य साधन हैं। विशेषावश्यकभाष्य में बोटिकमत की उत्पत्तिकथा दी गई है, उसी में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् पण्डित बेचरदास जी ने भी ऐसा ही विचार व्यक्त किया है। वे लिखते हैं- " वर्धमान का निर्वाण होने से परम त्यागमार्ग के चक्रवर्ती का तिरोधान हो गया और ऐसा होने से उनके त्यागी निर्ग्रन्थ निर्नायक से हो गये । तथापि मैं मानता हूँ कि श्रीवर्धमान के प्रताप से उनके बाद की दो पीढ़ियों तक श्री वर्धमान का वह कठिन त्यागमार्ग ठीक रूप से चलता रहा था । यद्यपि जिन सुखशीलियों ने उस त्यागमार्ग को स्वीकारा था, उनके लिये कुछ छूट रक्खी गई थी और उन्हें ऋजुप्राज्ञ के संबोधन से प्रसन्न रक्खा गया था, तथापि मेरी धारणा मुजब वे उस कठिनता को सहन करने में असमर्थ निकले थे, और श्रीवर्धमान, सुधर्मा तथा जम्बू जैसे समर्थ त्यागियों की छाया में वे ऐसे दब गये थे कि किसी भी प्रकार की चींपटाक किये बिना यथा - तथा थोड़ी सी छूट लेकर भी वर्धमान के मार्ग का अनुसरण करते थे । परन्तु इस समय वर्धमान, सुधर्मा या जम्बू कोई भी प्रतापी पुरुष विद्यमान न होने से उन्होंने शीघ्र ही यह कह डाला कि जिनेश्वर का आचार जिनेश्वर के निर्वाण के साथ ही निर्वाण को प्राप्त हो गया है। उनके जैसा संयम पालन करने के लिए आवश्यक शारीरिक बल या मनोबल आजकल नहीं रहा, एवं उच्च कोटि के आत्मविकास और पराकाष्ठा के त्यागमार्ग का भी आज लोप हो गया है। अतः अब तो वर्धमान के समय में जो छूट ली जाती थी, उसमें भी संयम के सुभीते के लिये (?) वृद्धि करने की आवश्यकता मालूम देती है। मेरी मान्यतानुसार इस संक्रातिकाल में ही श्वेताम्बरता और दिगम्बरता का बीजारोपण हुआ है और जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद इसका खूब पोषण होता रहा हो, यह विशेष संभावित है। यह हकीकत मेरी निरी कल्पना मात्र नहीं है, किन्तु वर्तमान ग्रन्थ भी इसे प्रमाणित करने के सबल प्रमाण दे रहे हैं। विद्यमान सूत्रग्रन्थों एवं कितनेक अन्य ग्रन्थों में प्रसंगोपात्त यही बतलाया गया है कि Jain Education International मण- परमोहि-पुलाए आहारग-खवग-उवसमे कप्पे । संजमतिय-केवलि-सिज्झणा य जंबुम्मि वुच्छिण्णा ॥ २५९३ ॥ विशे. भा. । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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