SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 643
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ० ६ / प्र० १ दिगम्बर - श्वेताम्बर - भेद का इतिहास / ४४७ जम्बूस्वामी के नाम तो दोनों सम्प्रदायों में समानरूप से मिलते हैं, किन्तु उसके बाद शिष्यपरम्परा में परिवर्तन हो जाता है। दिगम्बरपरम्परा में जम्बूस्वामी के बाद क्रमशः विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु इन पाँच श्रुतकेवलियों के नाम मिलते हैं, जब कि श्वेताम्बरपरम्परा में प्रभव, शय्यम्भव, यशोभद्र, सम्भूतिविजय और भद्रबाहु के नाम हैं। शिष्यपरम्परा में यह भेद स्पष्टतः संघभेद का सूचक है। आदरणीय पण्डित कैलाशचन्द्र जी शास्त्री का भी यही मत है। वे लिखते हैं- " गौतम गणधर, सुधर्मास्वामी तथा जम्बूस्वामी तक भगवान् महावीर का जैनसंघ अखण्डरूप से प्रवर्तित हुआ । जम्बूस्वामी के पश्चात् किसी प्रकार के अलगाव का भाव उत्पन्न हुआ हो, तो असम्भव नहीं है, क्योंकि भगवान् महावीर के इन तीनों उत्तराधिकारियों को दोनों सम्प्रदाय अपना धर्मगुरु मानते हैं। यद्यपि इतना अन्तर अवश्य प्रतीत होता है कि दिगम्बरपरम्परा गौतम गणधर को ही विशेष महत्त्व देती है, जब कि श्वेताम्बरपरम्परा सुधर्मा को विशेष महत्त्व देती है। सुधर्मा के शिष्य जम्बूस्वामी थे । जम्बूस्वामी के पश्चात् कोई अनुबद्ध केवलज्ञानी नहीं हुआ । --- - जम्बूस्वामी के पश्चात् ही दिगम्बर और श्वेताम्बर - परम्परा की गुर्वावली में अन्तर पड़ता है और उनमें श्रुतकेवली भद्रबाहु ही ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें दोनों मान्य करते हैं। इस पर से ऐसा संशय होना स्वाभाविक है कि क्या जम्बूस्वामी के पश्चात् ही कोई ऐसा विवाद खड़ा हुआ था, जिसके कारण से दोनों परम्पराओं के आचार्यों की नामावली में अन्तर पड़ गया?” (जै.सा.इ./ पू.पी./ पृ.४८५-४८६) । श्वेताम्बर मुनि श्री नगराज जी डी० लिट्० ने भी ऐसे ही विचार व्यक्त किये हैं। उनका कथन है- " जम्बू से अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु तक दिगम्बरपट्टावली के अनुसार नन्दी (विष्णु), नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन तथा भद्रबाहु ये पाँच श्रुतकेवली होते हैं। श्वेताम्बर - परम्परा में जम्बू के पश्चात् भद्रबाहु तक प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र, विजय तथा भद्रबाहु, ये पाँच श्रुतकेवली होते हैं। दोनों परम्पराओं में भद्रबाहु के अतिरिक्त चारों आचार्यों के नाम भिन्न-भिन्न हैं। इससे यह अनुमान लगाना असम्भाव्य कोटि में नहीं जाता कि किन्हीं मुद्दों को लेकर जैनसंघ में जम्बू के बाद भेद पड़ गया था, जिनमें संभवतः मुख्य मुद्दा निर्वस्त्रता एवं सवस्त्रता का रहा होगा । भद्रबाहु के बाद की पट्टावली तो भिन्न है ही ।" ( आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन / खण्ड २ / पृ. ५५७) । दूसरा साक्ष्य यह है कि प्रसिद्ध श्वेताम्बरग्रन्थ 'विशेषावश्यकभाष्य' में जम्बूस्वामी के पश्चात् जिनकल्प (अचेलकधर्म) के विच्छेद होने की बात कही गई है और बतलाया गया है कि उनके बाद केवल स्थविरकल्प ( सचेलमार्ग) के ही आचरण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy