________________
४४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०६/प्र०१ समय (विक्रम की छठी सदी में) मौजूद था। दिगम्बर-परम्परा को प्राचीन न मानने के कारण वे यह नहीं सोच सकते कि जब कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में सवस्त्रमुक्ति आदि का निषेध किया है, तब इनका निषेध करनेवाली कोई प्राचीन परम्परा रही होगी, उसी परम्परा के गुरु से कुन्दकुन्द को यह ज्ञान प्राप्त हुआ होगा।
अभिप्राय यह कि विक्रम की छठी शती में कुन्दकुन्द को दिगम्बरमत का प्रवर्तक मानने पर उन्हें पहले यापनीयसम्प्रदाय का अनुयायी मानना आवश्यक है। किन्तु द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पंचम अध्यायों में प्रस्तुत प्रमाणों से सिद्ध किया जा चुका है कि ऐतिहासिक दृष्टि से दिगम्बर-परम्परा सिन्धुसभ्यता से भी प्राचीन है, अतः उसे यापनीयसम्प्रदाय से उद्भूत बतलाना भारी छलवाद है।
'दिगम्बर' शब्द 'निर्ग्रन्थ' का नामान्तर द्वितीय अध्याय के षष्ठ प्रकरण में सप्रमाण सिद्ध किया गया है कि भगवान् महावीर के अनुयायी नग्न (दिगम्बर) मुनियों का संघ ही भारतीय इतिहास में 'निर्ग्रन्थसंघ' नाम से प्रसिद्ध रहा है। श्वेताम्बरसंघ अपने जन्मकाल से ही श्वेतपट, श्वेतवस्त्र, सिताम्बर या श्वेताम्बर नामों से अभिहित होता आया है। निर्ग्रन्थसंघ भगवान् महावीर के निर्वाण के कुछ ही वर्षों बाद निर्ग्रन्थ और श्वेतपट इन दो भागों में विभक्त हो गया था। श्वेतपटसंघ के निर्माता साधुओं के पृथक् हो जाने से अवशिष्ट निर्ग्रन्थसंघ बहुतसमय तक निर्ग्रन्थ नाम से ही अभिहित होता रहा। उसका एक मूलसंघ नाम भी प्रचलित हो गया। आगे चलकर वह नग्नत्वरूप अर्थसाम्य के कारण और 'श्वेतपट' या 'श्वेताम्बर' शब्द के प्रतिपक्षी अर्थ को स्पष्टतः द्योतित करने के लिए दिगम्बरसंघ नाम से भी पुकारा जाने लगा। अतः प्रस्तुत ग्रन्थ में 'दिगम्बरसंघ' से सर्वत्र 'निर्ग्रन्थसंघ' एवं 'मूलसंघ' और 'दिगम्बरमुनि' से सर्वत्र 'निर्ग्रन्थमुनि' अर्थ ही ग्राह्य है।
जम्बूस्वामी के पश्चात् दिगम्बर-श्वेताम्बर-संघभेद __ अनेक साक्ष्य ऐसे हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि अन्तिम अनुबद्ध केवली जम्बूस्वामी के निर्वाण (वीर नि० सं० ६२=४६५ ई० पू०) के पश्चात् ही भगवान् महावीर का अनुयायी ऐकान्तिक अचेलमुक्तिवादी निर्ग्रन्थसंघ 'निर्ग्रन्थ' और 'श्वेतपट' अर्थात् दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों में विभाजित हो गया था। पहला साक्ष्य यह है कि भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् उनकी शिष्यपरम्परा में गौतम (गणधर), सुधर्मा और
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org