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षष्ठ अध्याय दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद का इतिहास
प्रथम प्रकरण संघभेद के साहित्यिक प्रमाण
यापनीयों से दिगम्बरों की उत्पत्ति का मत भारी छलवाद
द्वितीय अध्याय में मुनि श्री कल्याणविजय जी का वक्तव्य उद्धृत किया गया है, जिसमें उन्होंने अपनी यह मान्यता प्रकट की है कि 'जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् जिनकल्प का विलोप हो गया था और वीर नि० सं० ६०९ में श्वेताम्बरसम्प्रदाय के स्थविरकल्पिक साधु बोटिक शिवभूति ने यापनीयसम्प्रदाय चलाया था। फिर यापनीयसम्प्रदाय से दिगम्बरसम्प्रदाय का जन्म हुआ। उसके जन्मदाता दक्षिणभारत के आचार्य कुन्दकुन्द थे, जो पहले यापनीयसम्प्रदाय में दीक्षित हुए थे, पश्चात् उन्होंने आपवादिक सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति का निषेध करते हुए दिगम्बरसम्प्रदाय स्थापित किया।' इसलिए मुनि कल्याणविजय जी लिखते हैं-"दिगम्बरसम्प्रदाय का पूर्वनाम यापनीयसंघ था।" (अ.भ.म./पृ.३३५)।
दूसरी ओर डॉ० सागरमल जी मानते हैं कि जिनकल्प का विलोप नहीं हुआ था। वीर नि० सं० ६०९ में जिनकल्प और स्थविरकल्प दोनों प्रचलित थे। इस परम्परा को उन्होंने उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा नाम दिया है। उनके अनुसार वीर नि०सं० ६०९ में इसके विभाजन से श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों का उद्भव हुआ था। उनकी मान्यता है कि दिगम्बरसम्प्रदाय की नींव आचार्य कुन्दकुन्द ने विक्रम की छठी शती में दक्षिणभारत में डाली थी। किन्तु उन्होंने यह नहीं लिखा कि कुन्दकुन्द पहले यापनीयसम्प्रदाय में दीक्षित हुए थे। फिर भी यदि उनसे यह पूछा जाय कि आपके अनुसार कुन्दकुन्द ने केवल सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति के सिद्धान्तों का निषेध किया था, शेष जैनसिद्धान्त उन्हें मान्य थे, तो पहले इन समस्त सिद्धान्तों का उपदेश उन्हें किस सम्प्रदाय के गुरु से प्राप्त हुआ था? इसके उत्तर में वे भी मुनि कल्याणविजय जी का ही अनुसरण करेंगे, क्योंकि नाग्न्यमुक्ति के साथ वैकल्पिक सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति आदि सिद्धान्तों को माननेवाला केवल यापनीयसम्प्रदाय ही उस
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