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________________ चतुर्थ प्रकरण अभिलेखों में निर्ग्रन्थों और मूलसंघ के उल्लेख अभिलेखीय प्रमाणों से भी दिगम्बरपरम्परा के ईसापूर्ववर्ती होने का समर्थन होता है। प्राचीन शिलालेखों एवं ताम्रपत्रलेखों में निर्ग्रन्थ और मूलसंघ शब्दों का प्रयोग हुआ है, जो दिगम्बरसंघ के पूर्वनाम हैं। सम्राट अशोक ने अपने सातवें स्तम्भलेख (ईसा पूर्व २४२) में लिखवाया है कि उसने सभी धार्मिक सम्प्रदायों तथा ब्राह्मणों, आजीविकों और निर्ग्रन्थों के कल्याणकारी कार्यों की देखरेख के लिए धर्म-महामात्य की नियुक्ति की थी।७१ लोक में निर्ग्रन्थ शब्द दिगम्बरजैन मुनियों के लिए ही प्रसिद्ध था, यह पाँचवीं शती ई० के श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा एवं मृगेशवर्मा नामक कदम्बवंशीय राजाओं के अभिलेखों से प्रमाणित है। श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा के ताम्रपत्रलेख में उल्लिखित है कि उसने श्वेतपटमहाश्रमणसंघ और निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ के उपभोग के लिए कालवङ्ग नामक ग्राम का दान किया था। और मृगेशवर्मा के ताम्रपट्टिका लेख में कहा गया है कि उसने यापनीयों, निर्ग्रन्थों और कूर्चकों को भूमिदान किया था। इन लेखों में श्वेताम्बरों के लिए 'श्वेतपट' शब्द का प्रयोग किया गया है, यापनीयों के लिए 'यापनीय' शब्द और कूर्चकों के लिए 'कूर्चक' शब्द का। इसके बाद दिगम्बर ही शेष रहते हैं। अतः परिशेषन्याय से सिद्ध होता है कि 'निर्ग्रन्थ' शब्द दिगम्बरों के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। यह इस बात का प्रमाण है कि अशोकयुग से लेकर ईसा की पाँचवीं शती तक 'निर्ग्रन्थ' शब्द दिगम्बरों के लिए ही प्रयुक्त होता आ रहा था। इसकी पुष्टि । इस तथ्य से भी होती है कि अशोककालीन बौद्ध ग्रन्थ अपदान में श्वेताम्बरमुनि 'श्वेतवस्त्र' शब्द से अभिहित किये गये हैं ७२ और यापनीयों तथा कूर्चकों का उस समय अस्तित्व नहीं था। अतः यह निर्विवाद है कि अशोकयुग में दिगम्बर ही 'निर्ग्रन्थ' शब्द से प्रसिद्ध थे। दिगम्बरों के लिए 'निर्ग्रन्थ' शब्द के प्रयोग की प्राचीनता को डॉ० सागरमल जी ने भी स्वीकार किया है। वे लिखते हैं-"निर्ग्रन्थसंघ मूलसंघ से भिन्न नहीं था। यह उन अचेल श्रमणों का वर्ग था, जो भद्रबाहु के पूर्व या भद्रबाहु के समय से दक्षिणभारत में विचरण कर रहे थे। अतः ई० सन् की पाँचवीं शती तक दक्षिण भारत में यापनीयों से भिन्न अचेलपरम्परा के दो अन्य संघ भी थे, एक निर्ग्रन्थसंघ (मूलसंघ) और दूसरा कूर्चकसंघ।" (जै.ध.या.स./ पृ.४५)। ये शब्द डॉक्टर सा० ने सन् १९९६ में प्रकाशित अपने ग्रन्थ जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय में लिखे हैं। इसके ७१. देखिए, द्वितीय अध्याय के षष्ठ प्रकरण में शीर्षक २ के नीचे लेख का मूलपाठ। ७२. देखिए , चतुर्थ अध्याय / द्वितीय प्रकरण / शीर्षक १.२। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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