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४३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०५/प्र०३ भी प्रतिष्ठित की जाती है, वह वन्दनीय और पूजनीय नहीं है।६७ अञ्चलिकासहित जिनमूर्ति तो श्वेताम्बरों के द्वारा प्रतिष्ठित की जाती है, अतः शेष चार जैनाभास अर्थात् काष्ठासंघ (गोपुच्छक), माथुरसंघ (निष्पिच्छिक), द्राविड़संघ और यापनीयसंघ नग्न जिनप्रतिमा प्रतिष्ठित करते थे। इससे स्पष्ट है कि श्रुतसागरसूरि की मान्यतानुसार यापनीय जिनप्रतिमा-पूजक भी थे। सन् ४७५-४८० ई० के ६८ देवगिरि-दानपत्र में उल्लेख है कि कृष्णवर्मन् के पुत्र देववर्मन् ने अरहन्त भगवान् के चैत्यालय के भग्नसंस्कार तथा अर्चा-पूजा के लिए यापनीयसंघ को भूमि दान किया था।६९ इससे ज्ञात होता है कि यापनीयसंघ में लगभग अपने जन्म के समय (चौथी शती ई०) से ही मूर्ति पूजा प्रचलित थी। इससे आचार्य हस्तीमल जी का यह कथन प्रमाणविरुद्ध सिद्ध होता है कि यापनीयसंघ आरम्भ में रत्नत्रय को पूजता था, फिर उसमें तीर्थंकर के चरणचिह्नों की पूजा प्रारम्भ हुई, उसके बाद जिनप्रतिमा पूजी जाने लगी।
तथा आचार्य जी ने 'चिक्कमागड़ि' के उपर्युक्त स्तम्भलेख को शकसंवत् १०४ तदनुसार ईसवी सन् १८२ का बतलाया है। किन्तु शिलालेखों के विशेषज्ञ डॉ० गुलाबचन्द्र जी चौधरी ने लिखा है कि 'मूलसंघ' का सर्वप्रथम उल्लेख ३७० ई० एवं ४२५ ई० के नोणमंगल-ताम्रपट्टिका-लेखों (क्र० ९० और ९४) में हुआ है। अतः आचार्य जी का उपर्युक्त मत भी अप्रामणिक है।
इस प्रकार यही मत प्रामाणिक ठहरता है कि नग्न जिनप्रतिमा के निर्माण एवं पूजन का प्रचलन ईसा से कम से कम ढाई हजार वर्ष पूर्व एकान्त-अचेलमुक्तिवादी निर्ग्रन्थपरम्परा, जो आगे चलकर मूलसंघ एवं दिगम्बरजैनसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुई, उसमें ही हुआ था। उसी का अनुकरण उत्तरकालीन अर्धफालकसम्प्रदाय एवं यापनीयसम्प्रदाय ने किया। श्वेताम्बरसम्प्रदाय में या तो दीर्घकाल तक मूर्तिपूजा को मान्यता नहीं दी गयी अथवा ईसा की छठी शताब्दी के पूर्व तक अनग्न एवं अचेल जिनप्रतिमाओं का निर्माण एवं पूजन होता था, तत्पश्चात् सवस्त्र या अंचलिकायुक्त तीर्थंकरप्रतिमाओं का निर्माण आरम्भ हुआ। इसलिए ईसा से २४०० वर्ष पहले निर्मित हड़प्पा की नग्न जिनप्रतिमा एवं ईसा से ३०० वर्ष पूर्व बनी लोहानीपुर की नग्न तीर्थंकर प्रतिमा दिगम्बरपरम्परा की प्रतिमाएँ हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि ऐतिहासिक दृष्टि से दिगम्बरजैन-परम्परा ईसा से कम से कम ढाई हजार वर्ष पूर्ववर्ती है। ६७. "या पञ्चजैनाभासैरञ्चलिकारहितापि नग्नमूर्तिरपि प्रतिष्ठिता स न वन्दनीया, न चार्चनीया
च।" बोधपाहुड-टीका / गा. १०।। ६८. डॉ. ए. एन. उपाध्ये / 'अनेकान्त'/ महावीरनिर्वाण विशेषांक / १९७५ ई०। ६९. "अर्हतः भगवतः चैत्यालयस्य भग्नसंस्कारार्चनमहिमा) यापनीयसङ्ग्रेभ्यः --- द्वादश
निवर्तनानि क्षेत्रं दत्तवान्।" जैनशिलालेखसंग्रह / माणिकचन्द्र / भा.२ / ले. क्र. १०५। ७०. जैनशिलालेख संग्रह / माणिकचन्द्र / भा. ३ / प्रस्ता./ पृ. २४ ।
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