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________________ अ०५/प्र०३ पुरातत्त्व में दिगम्बर-परम्परा के प्रमाण / ४३३ मूर्ति-पूजन की प्रथा का अकाट्य प्रमाण हैं। उस समय यापनीयसम्प्रदाय का जन्म ही नहीं हुआ था। अतः. यह निर्विवाद है कि मन्दिरमूर्ति-निर्माण एवं मूर्तिपूजा का प्रचलन दिगम्बर-परम्परा द्वारा ही किया गया था। इसके अतिरिक्त 'यापनीय रत्नत्रय की पूजा करते हैं' श्रुतसागर सूरि के इस कथन की पुष्टि के लिए आचार्य जी ने जो चिक्कमागड़ि के स्तम्भलेख का उदाहरण दिया है, वह यापनीयसंघ का नहीं है, अपितु मूलसंघ का है। उसमें स्पष्ट लिखा है-“श्रीमन्मूलसंघद काणूरग्गणद तिन्त्रिकगच्छद ---" (देखिये, इसी प्रकरण का शीर्षक २)। यद्यपि मुनि श्री कल्याणविजय जी एवं डॉ० सागरमल जी ने यापनीयसंघ को मूलसंघ सिद्ध करने की चेष्टा की है, किन्तु वह उपलब्ध प्रमाणों से विफल हो जाती है। इसका साक्षात्कार 'यापनीयसंघ का इतिहास' नामक सप्तम अध्याय में किया जा सकता है। तथा काणरगण या क्राणरगण एवं तिन्त्रिक या तिन्त्रिणीक गच्छ भी मूलसंघ के ही हैं, यापनीयसंघ के नहीं।६५ अतः उक्त स्तम्भलेख से यापनीयों की किसी धार्मिक क्रिया की पुष्टि नहीं होती। वह मूलसंघ की धार्मिक क्रिया का ज्ञापक है। उससे ज्ञात होता है कि मूलसंघ में रत्नत्रयदेव का भी मन्दिर (वसदि) होता था। अर्थात् सरस्वती की प्रतिमा के समान रत्नत्रयदेव की भी प्रतिमा बनायी जाती थी और मन्दिर में प्रतिष्ठित कर उसका अभिषेक-पूजन किया जाता था। ऐसी एक रत्नत्रय-वसदि की चर्चा १५८७ ई० के रत्नत्रयबसदि-बीलिगि-(उत्तर कनडा, मैसूर)-अभिलेख में भी है, जिसमें मूलसंघ-देसिगण-पुस्तकगच्छ के श्रवणबेलगुल मठ के चारुकीर्ति पण्डित (भट्टारक) का उल्लेख किया गया है।६६ इससे इस विचार की पुष्टि होती है कि मूलसंघ में रत्नत्रयदेव की प्रतिमा मन्दिर में प्रतिष्ठित की जाती थी और पूजी जाती थी। यह कोई आपत्तिजनक बात नहीं थी। आज भी मूलसंघ में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, दशलक्षणधर्म आदि आत्मपरिणामों की काल्पनिक मूर्ति बनाये बिना ही पूजा की जाती है। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि मूलसंघ में जिनप्रतिमाओं की पूजा नहीं होती थी। मूलसंघ में जिनप्रतिमाओं की पूजा-अर्चना तो ईसापूर्व तीन हजार वर्ष से होती आ रही है, यह पूर्व प्रमाणों से सिद्ध है। इसी प्रकार यदि श्रुतसागरसूरि ने दंसणपाहुड (गा.११) की टीका में यह लिखा है कि 'यापनीय रत्नत्रय को पूजते हैं' तो यह इस बात का सबूत नहीं है कि वे उस समय जिनप्रतिमा को नहीं पूजते थे। श्रुतसागरसूरि ने यापनीयों को पञ्चजैनाभासों में शामिल करते हुए कहा है कि जैनाभासों के द्वारा जो अञ्चलिकारहित नग्नमूर्ति ६५. देखिए , अध्याय ७ / प्रकरण ३ / शीर्षक ४ तथा अध्याय ८/ प्रकरण ३ / शीर्षक १। ६६. जैनशिलालेखसंग्रह / भारतीय ज्ञानपीठ / भा.४ / लेख क्र.४९०। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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