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________________ ४३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०५/प्र०३ के प्रभाव से हुआ है, हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचाते हैं कि श्वेताम्बरपरम्परा में मूर्तिनिर्माण प्रारम्भ होने के पूर्व तक, मन्दिरनिर्माण एवं मूर्तिपूजा का प्रचलन नहीं था। सबसे प्राचीन उपलब्ध श्वेताम्बर जिनप्रतिमा जीवन्त स्वामी की है, जो छठी शती ई० में निर्मित हुई थी। संभवतः इसी समय से श्वेताम्बरसम्प्रदाय में मूर्तिपूजा का प्रचलन हुआ। यह इसका ज्वलन्त प्रमाण है कि जितनी भी प्राचीन नग्न जिनप्रतिमाएँ उपलब्ध हुई हैं, वे सब दिगम्बर-परम्परा की हैं। यापनीय-सम्प्रदाय की उत्पत्ति पाँचवीं शती ई० के प्रारंभ में हुई थी, अतः पाँचवीं शती ई० के पूर्व की कोई भी नग्न जिनप्रतिमा यापनीयपरम्परा से सम्बद्ध नहीं है। हाँ, कंकाली टीले में उपलब्ध कुछ नग्न जिनप्रतिमाएँ, जिनके पादपीठ पर अर्धफालकधारी साधु मूर्तित हैं, अर्धफालकसम्प्रदाय की हैं। नग्न-जिनप्रतिमा-निर्माण एवं पूजन का प्रारम्भ . दिगम्बरपरम्परा द्वारा उपर्युक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि तीर्थंकरों की नग्न प्रतिमाओं का निर्माण और पूजन अत्यन्त प्राचीनकाल से (कम से कम सिन्धुसभ्यता के युग से) केवल दिगम्बरपरम्परा में ही होता आया है और वह केवल उसी के सिद्धान्तों के अनुकूल है। ईसापूर्व चौथी शताब्दी में उत्पन्न अर्धफालक सम्प्रदाय तथा ईसा की पाँचवीं शती में उद्भूत यापनीयसम्प्रदाय ने भी नग्न जिनप्रतिमाओं के निर्माण एवं पूजन की प्रथा दिगम्बरों से ही ग्रहण की थी। अतः सिन्धुसभ्यतायुग, नन्दपूर्वयुग ( या महावीरयुग ), मौर्ययुग, शुंगयुग, कुषाणयुग, गुप्तयुग और गुप्तोत्तरयुग में निर्मित नग्न जिनप्रतिमाओं की उपलब्धि से सिद्ध है कि दिगम्बर जैन-परम्परा ऐतिहासिक दृष्टि से कम से कम ईसा से २४०० वर्ष पुरानी है। इसलिए यह कहना कि उसे बोटिक शिवभूति ने प्रथम शती ई० में या आचार्य कुन्दकुन्द ने पाँचवी शती ई० (विक्रम की छठी शती) में प्रवर्तित किया था, एक महान् ऐतिहासिक सत्य का अभद्र अपलाप है। आ० हस्तीमल जी के मत के अप्रामाणिक. अंश पूर्वोद्धृत (इसी प्रकरण के शीर्षक २ में उद्धृत) वक्तव्य में आचार्य श्री हस्तीमल जी का यह मन्तव्य प्रमाणविरुद्ध है कि "जैनसम्प्रदाय में मूर्तिपूजा एवं मन्दिरनिर्माण का प्रचलन रत्नत्रयपूजा एवं चरणचिह्नपूजा के क्रम से यापनीयों ने किया था," क्योंकि हड़प्पा और लोहानीपुर से प्राप्त जिनप्रतिमाएँ ईसा से क्रमशः २४०० वर्ष और ३०० वर्ष पुरानी हैं, जो जैन-परम्परा में ईसा से २४०० वर्ष पूर्व मन्दिर-मूर्ति-निर्माण एवं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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