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________________ अ०५/प्र०३ पुरातत्त्व में दिगम्बर-परम्परा के प्रमाण / ४३१ एवं चिह्नों की प्राप्ति होनी चाहिए थी। इन बातों के बावजूद भी यह तो स्वीकार करना ही पडेगा कि जैनत्व के प्रति राजा सम्प्रति के हृदय में अगाध श्रद्धा और आस्था थी। __ "विदेशों में समनीया जाति कही जाती है। वह असम्भव नहीं, सम्प्रति-कालिक प्रचार एवं पुरुषार्थ का ही प्रतिफल हो। श्रमण और समनीया का साम्य स्पष्ट है। कालान्तर में उचित जैन संस्कारों के अभाव में समनीया जाति में से जैनत्व के संस्कार विलुप्त हो गये हों, पर नाम समणीया आज भी ज्यों का त्यों बना हुआ है। ___ "उपर्युक्त विचारों पर पाठक तटस्थता से चिन्तन कर तथ्य पर पहुँचने का प्रयास . करें।" (जै. ध. मौ. इ./ भा. २ / पृ. ४५९-४६०)। सभी प्राचीन नग्न जिनप्रतिमाएँ दिगम्बरीय प्राचीनकाल में श्वेताम्बरपरम्परा में मन्दिर-मूर्ति के निर्माण एवं पूजन की प्रथा के अभाव के विषय में मान्य श्वेताम्बराचार्य श्री हस्तीमल जी द्वारा प्रस्तुत उपर्युक्त (शीर्षक २ में वर्णित) प्रमाण युक्तिसंगत प्रतीत होते हैं। डॉ० सागरमल जी ने भी स्वीकार किया है कि मूर्तिपूजा की प्रथा श्वेताम्बरसम्प्रदाय की मौलिक प्रथा नहीं है, अपितु बाहर से आयी है। वे लिखते हैं-"तीसरी-चौथी शती से वैदिकपरम्परा के प्रभाव से पूजाविधान और तान्त्रिक साधनाएँ जैन और बौद्ध परम्पराओं में प्रविष्ट हो गयीं।" ('जैनधर्म की ऐतिहासिक विकासयात्रा'/ पृ.१२)। उन्होंने यह भी लिखा है कि "आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, भगवती आदि प्राचीन आममों में जिनपूजा की विधि का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता।" (वही/पृ.३५)। इसके विपरीत डॉक्टर सा० ने यह भी माना है कि "यद्यपि जैनधर्म में मूर्ति और मन्दिर-निर्माण की परम्परा भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग सौ वर्ष पश्चात् नन्दों के काल से प्रारम्भ हो गई थी, हड़प्पा से प्राप्त एक नग्न कबन्ध जैन है या नहीं, यह निर्णय कर पाना कठिन है, किन्तु लोहानीपुर पटना से प्राप्त मौर्यकालीन जिनप्रतिमा इस तथ्य का संकेत है कि जैनधर्म में मूर्ति-उपासना की परम्परा रही है, तथापि उसमें यह सब अपनी सहवर्ती परम्पराओं के प्रभाव से आया है।" (वही/ पृ. ३४)। स्पष्ट है कि इस प्रमाण से दिगम्बरमत में अतिप्राचीनकाल से प्रचलित मूर्तिपूजा का समर्थन होता है। आचार्य हस्तीमल जी के द्वारा प्रस्तुत प्रमाण और डॉ० सागरमल जी का यह मत कि श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में पूजापद्धति का प्रवेश तीसरी-चौथी शती में वैदिकपरम्परा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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