SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 624
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०५/प्र०३ "राजा सम्प्रति द्वारा किये गये कार्यों के सम्बन्ध में प्रसिद्ध जैनइतिहासवेत्ता स्व० मुनि श्री कान्तिसागर जी ने कुछ अंशों की जो पाण्डुलिपि तैयार की, उसके एतद्विषयक अंश को यहाँ अविकल रूप से दिया जा रहा है "यह एक आश्चर्य की बात है कि मौर्यसाम्राज्य के इतिहास में सम्प्रति के संबंध में जो कुछ भी उल्लेख मिलता है, वह उसके कृतित्व पर वास्तविक प्रकाश नहीं डालता। जैन साहित्य में सम्प्रति के सम्बन्ध में विशद विवेचन उपलब्ध है। उस विवेचन के अनुसार सम्प्रति ने जैन संस्कृति के प्रचार व प्रसार के लिये अपने पुत्रों तथा असूर्यम्पश्या कहलाने-वाली अपनी पुत्रियों तक को कृत्रिम मुनियों का व साध्वियों का वेष धारण करवा कर अपने अनेकों सामन्तों के साथ दूर-दूर प्रदेशों में भिजवाया और इस तरह अशोक के आदर्श को सम्पति ने अपने जीवन में भी मूर्त रूप दिया। "चूर्णि और नियुक्तियों में यह भी सूचित किया गया है कि सम्प्रति ने प्रचुर मात्रा में जिनमूर्तियों की, मन्दिरों एवं देवशालाओं में स्थापना करवाकर जैन संस्कृति और सभ्यता को स्थान-स्थान पर फैलाया था। "जहाँ तक जैनमूर्ति-विधान एवं उपलब्ध पुरातन अवशेषों का प्रश्न है, यह बिना किसी संकोच के कहा जा सकता है कि राजा सम्प्रति द्वारा निर्मित मन्दिर या मूर्तियाँ भारतवर्ष के किसी भी भाग में आज तक उपलब्ध नहीं हो पाई हैं। श्वेतपाषाण की कोहनी के समीप गाँठ के आकार के चिह्नवाली प्रतिमाएँ जैन समाज में प्रसिद्ध रही हैं और उन सभी का सम्बन्ध राजा सम्प्रति से स्थापित किया जाता है। ऐसी प्रतिमाओं के अनेक स्थानों पर प्रतिष्ठापित होने का भी उल्लेख किया गया है। मेरी विनम्र सम्मति के अनुसार ये श्वेत पाषाण की प्रतिमाएँ सम्प्रति अथवा मौर्य काल की तो क्या, तदुत्तरवर्ती काल की भी नहीं कही जा सकतीं। "दशम सदी से पूर्व के बहुत कम ऐसे शिल्पावशेष मिले हैं, जो श्वेत प्रस्तरों पर उत्कीर्णित हों। मौर्यकाल में अधिकतर प्रादेशिक पत्थर ही शिल्पकला में व्यवहृत होते थे। मौर्यकाल की मूर्तियाँ जितनी भी उपलब्ध हैं, लगभग सभी सचिक्कण हैं। ये प्रतिमाएँ अपनी शैली के कारण दूर से ही पहिचानी जा सकती हैं। पटना-लोहानीपुरा मोहल्ले से निकली कुछ खण्डित प्रतिमाएँ पटना-म्यूजियम में सुरक्षित हैं। एक बात और भी है कि मन्दिर बनवाने के सम्बन्ध में भी यदि स्पष्ट कहा जावे, तो स्थिति सन्देहात्मक ही है, कारण कि मौर्यशासित प्रदेशों में जहाँ कहीं भी उत्खनन हुआ है, वहाँ इनके अवशेष या चिह्न कहीं नहीं मिले हैं। यदि सम्प्रति राजा ने इतना विशद शैल्पिक निर्माण करवाया होता, तो कम से कम कहीं न कहीं तो इनके अवशेषों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy