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________________ अ०५/प्र०३ पुरातत्त्व में दिगम्बर-परम्परा के प्रमाण / ४२९ मृगमदामोदं मार्कोलभैरवं कादम्बकण्ठी --- कामिनीलोलं हुसिवरशूलं निगलंक मल्लनसु हृत् सेल्ल गण्डर दावणि सुभटशिरोमणि इत्यखिलनामावली समालंकृतनप्प वाप्प देव --- बलिय-बाडं तलवेयं त्रिभोगाभ्यन्तर-विशुद्धियि-सर्व्वबाधापरिहारं-सर्व-नमश्यवागिपरिकल्पिसिदुदं शकवर्ष-नूर-नाल्कनेय --- सुद्ध पंचमी बुधवारदन्दा रत्नत्रयदेवरभिषेकाद्यंगभोग-रंग-भोगक्कं ऋषियराहार-दानक्कं विद्यार्थिगल --- बसदि पेस --- खण्ड स्पु (स्फो) टित जीण्णोद्धारक्कवेन्दु आ श्रीमन्मूलसंघद काणूग्गणद तिन्त्रिकगच्छद नुन्नवंशद श्रीमद्भानुकीर्ति सिद्धान्त --- कोट्ट --- महाप्रधानं कृतजयाकर्षणविधानं धनुर्विद्याधनंजय नाकर्षिणतरणरभसभीतभू --- द विद्याधरं काव्यकलाधरनेनिपमुरारिकेशद-देवंगे धर्म प्रतिपालनमं समर्पिसिदनातनं प्रभावमेन्तेदोडे ॥" ६३ "इसमें रत्नत्रयदेव-वसदि और रत्नत्रयदेव के अभिषेक, अंग-भोग, रंग-भोग और वहाँ रहनेवाले मुनियों और विद्यार्थियों के आहार आदि की व्यवस्था हेतु मूलसंघ, काणूर्गण, तिन्त्रिणीकगच्छ, नन्नवंश के आचार्य भानुकीर्ति-सिद्धान्तदेव को दान किये जाने का स्पष्ट उल्लेख है। इससे "रत्नत्रयं पूजयन्ति" इस उपर्युल्लिखित उल्लेख की पुष्टि होती है कि यापनीयसंघ में रत्नत्रय (सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र) देव की पूजा किये जाने का पूर्वकाल में प्रचलन था। इस लेख में रत्नत्रयदेव-मन्दिर के जीर्णोद्धार का भी इस दान के कारण के रूप में उल्लेख होने से यह स्वतः ही सिद्ध हो जाता है कि शक संवत् (?) १०४ तदनुसार ईसवी सन् (?) १८२ में जिस वक्त यह दान दिया गया, यह रत्नत्रयदेव का मन्दिर अथवा बसदि का भवन अतिप्राचीन होने के कारण जीर्णशीर्ण हो चुका था। रत्नत्रयदेव की बसदि के अतिप्राचीन और जीर्णशीर्ण होने के उल्लेख से भी यह अनुमान किया जाता है कि यापनीयपरम्परा में प्रारम्भिक काल में तीर्थंकरों की मूर्ति के स्थान पर रत्नत्रयदेव की पूजा की परिपाटी प्रचलित थी। (जै.ध.मौ.इ. / भा. ३ / पृ.२४०-२४१)। __ आचार्य श्री हस्तीमल जी 'जैनधर्म का मौलिक इतिहास' के द्वितीय भाग में मुनि श्री कान्तिसागर जी के मत को उद्धृत करते हुए लिखते हैं-"सम्प्रति के सम्बन्ध में कतिपय जैनग्रन्थों में इस प्रकार का उल्लेख मिलता है कि उसने भारत के आर्य एवं अनार्य प्रदेशों में इतने जिनमन्दिरों का निर्माण करवाया कि वे सारे प्रदेश जिनमन्दिरों से सुशोभित हो गये।६४ ६३. जैन शिलालेख संग्रह / भाग ३ / लेख सं. ४०८ । ६४. “येन सम्प्रतिना त्रिखंडमितापि मही जिनप्रासादमण्डिता विहिता, साधुवेश-धारिनिजवंशपुरुष प्रेषणेनानार्यदेशेऽपि साधुविहारः कारितः।" (तपागच्छ-पट्टावली)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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