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________________ ४२८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०५/प्र०३ पूर्व स्वर्गस्थ हुए सम्प्रति द्वारा स्थान-स्थान पर जिनमन्दिरों के निर्माण करवाये जाने और त्रिखण्ड की भूमि को जिनमन्दिरों से मण्डित कर दिये जाने के अनेकशः उल्लेख किये गये हैं। ___ "वीर नि० सं० ३१६ से वीर नि० सं० ३२९ तक एक परमधर्मनिष्ठ जैन राजा के राज्यकाल में किये गये धर्मकार्यों एवं अन्यान्य प्रमुख कार्यों के विवरण में मूर्तिपूजा का, मन्दिर निर्माण का, रथयात्रा का, रथ पर पुष्पवर्षा का, रथ के आगे अनेक प्रकार के फलों, विविध खाद्य-पदार्थों, कौड़ियों एवं वस्त्र आदि की उछाल का कोई उल्लेख नहीं, और उस लेख से ८०० से लेकर १८०० वर्ष पश्चात् लिखे गये ग्रन्थों में मूर्तिपूजा, मन्दिरनिर्माण, रथयात्रा आदि के उत्तरोत्तर अतिरंजित अभिवृद्धि के साथ उल्लेख हैं। यह एक इस प्रकार की स्थिति है जो सर्वसाधारण को हठात् बड़े असमंजस में डाल देने के साथ तत्त्वजिज्ञासुओं, तथ्य के गवेषकों एवं इतिहास में अभिरुचि रखनेवाले विज्ञों के मन-मस्तिष्क में विचार-मन्थन उत्पन्न कर देती है। "यह तो एक सर्वसम्मत निर्विवाद सत्य है कि वीरनिर्वाण के पश्चात् ३२९ (३१६ से ३२९ तक खारवेल का शासनकाल) से ३७९ (हाथीगुंफा के शिलालेख के उठेंकन का अनुमानित काल) वर्ष की अवधि के बीच जो तथ्य शिला पर उट्टंकित किये गये हैं, वे वीर नि० सं० ११००, १२००, १७०० और २११६ में निबद्ध किये गये भाष्य, चूर्णि, परिशिष्टपर्व, तपागच्छ-पट्टावली आदि ग्रन्थों के उल्लेखों की अपेक्षा निश्चितरूपेण अधिक प्रामाणिक एवं परम विश्वसनीय और तथ्यपरक हैं। (जै.ध. मौ.इ./ भा. ३ / पृ. २३८-१४०)। "इन सब तथ्यों से अनुमान किया जाता है कि मूर्तिपूजा का प्रचलन चैत्यवासीपरम्परा और यापनीय-परम्परा ने कालान्तर में प्रारम्भ किया। ऐसा प्रतीत होता है कि रत्नत्रयदेव की पूजा के अनन्तर यापनीय-परम्परा ने चरणचिह्नों की पूजा का और तदनन्तर मूर्तिपूजा एवं मन्दिरनिर्माण आदि का प्रचलन किया। "श्रुतसागर सूरि द्वारा यापनीयपरम्परा की मान्यताओं के सम्बन्ध में जो 'रत्नत्रयं पूजयन्ति' वाक्य का प्रयोग किया गया है, इसकी पुष्टि, चिक्क मागड़ि में अवस्थित वसवण्णमन्दिर के प्रांगण में जो एक स्तम्भलेख विद्यमान है, उससे भी होती है। इस अति विस्तृत शिलालेख के अन्तिम भाग में रत्नत्रयदेव की वसदि के सम्बन्ध में जो उल्लेख है वह निम्नलिखित रूप में है ___ "--- तत्पादपद्मोपजीविश्रीमन्महाप्रधान बाहत्तर नियोगाधिपति महाप्रचंडदंडनायकं रेचिदेवरसनामा गुलिय रत्नत्रयदेवरबसदियाचार्य्यर् भानुकीर्ति-सिद्धान्तदेवरं बरिसि मुन्नं समधिगत-पंचमहाशब्दमहामण्डलेश्वरं बनवासिपुरवराधीश्वरं पद्मावतीदेवीलब्धवरप्रसाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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