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________________ अ०५/प्र०३ पुरातत्त्व में दिगम्बर-परम्परा के प्रमाण / ४२७ उल्लेखों पर क्षीर-नीर-विवेकपूर्ण निष्पक्ष दृष्टि से गहन विचार करने की प्रेरणा देते हैं, जिनमें मौर्य सम्राट् परमाहत सम्प्रति के लिये कहा गया है कि उसने तीनों खण्डों की पृथ्वी को जिनमन्दिरों से मण्डित कर दिया था। "यह तो एक ऐतिहासिक तथ्य है कि खारवेल का हाथीगुंफावाला उपरिवर्णित शिलालेख नियुक्तियों, चूर्णियों, भाष्यों एवं पट्टावलियों से अनेक शताब्दियों पूर्व का है। ये नियुक्तियाँ आदि वस्तुतः इस शिलालेख से बहुत पीछे की कृतियाँ हैं। प्रसिद्ध पुरातत्त्वविद् विद्यामहोदधि श्री काशीप्रसाद जायसवाल, एम० ए०, बार एट लॉ ने तो इस शिलालेख के सम्बन्ध में यहाँ तक लिखा है १. "--- पर ऐतिहासिक घटनाओं और जीवनचरित को अंकित करनेवाला भारतवर्ष का यह सबसे पहला शिलालेख है।"५७ २. "जैनधर्म का यह अब तक सबसे प्राचीन लेख है।"५८ ३. "मालूम रहे कि कोई जैनग्रन्थ इतना पुराना नहीं है, जितना कि यह लेख है।" ५९ "एक ओर तो वीर नि० की चौथी शताब्दी में उटूंकित खारवेल के सर्वाधिक प्राचीन शिलालेख में विविध धर्मकार्यों का विवरण होते हुए भी मूर्तिपूजा अथवा मन्दिरनिर्माण का कहीं नामोल्लेख तक नहीं, और दूसरी ओर इस शिलालेख से क्रमशः ८००, ९००, १३७० और इससे भी बड़े उत्तरवर्ती काल के भाष्यकारों,६° चूर्णिकारों,६१ परिशिष्ट-पर्वकारों और पट्टावलीकारों ६२ द्वारा स्थान-स्थान पर मूर्तिपूजा और जिनमन्दिरनिर्माण के उल्लेखों के साथ-साथ खारवेल के सिंहासनारूढ़ होने से केवल २३ वर्ष ५७. कलिंगचक्रवर्ती महाराज के शिलालेख का विवरण (काशी नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से सन् १९२८ में प्रकाशित) / पृष्ठ २। ५८. वही / पृष्ठ ६। ५९. वही / पृष्ठ ११। ६०. अणुयाणे अणुयाति, पुप्फारूहाणाइ उक्खीरणगाई। पूयं च चेतियाणं, ते वि सरज्जेसु कारेति ॥ ५७५४॥ निशीथभाष्य / भाग ४ / पृ.१३१ । ६१. "अणुजाणं रहजत्ता तेसु सो राया अणुजाणंति भडचडगसहितो रहेण सह हिंडति, रहेसु पुप्फारूहणं करेंति, रहगतो य विविधफले खज्जगे य कबड्डग वत्थमादी य उक्खीरणे करेंति, अन्नेसिं च चेइयघरठियाणं चेइया पूयं करेंति, ते वि य रायाणो एवं चेव सरज्जेसु कारवेंति॥" ५७४७॥ निशीथचूर्णि। ६२. "येन सम्प्रतिना त्रिखण्डमितापि मही जिनप्रासादमण्डिता विहिता।" तपागच्छ-पट्टावली। रचनाकाल वीरनिर्वाण सं.२११६ / वि.सं.१६४६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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