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४२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०५ / प्र० ३ प्रति प्रगाढ़
का प्रचलन हो गया होता, तो खारवेल जैसा परमार्हत एवं जैनधर्म निष्ठा रखनेवाला राजा कलिंग की राजधानी में और कुमारीपर्वत पर एक दो जैन मन्दिरों का नव्य-भव्य निर्माण तो अवश्यमेव ही करवाता । किन्तु शिलालेख साक्षी है कि ऐसा कुछ भी नहीं किया गया ।
" खारवेल के इस शिलालेख से प्रकाश में आये इन तथ्यों पर इतिहासज्ञ स्वयं विचारकर निर्णय करें कि वे किस सत्य की ओर इंगित कर रहे हैं।
" खारवेल के इस शिलालेख से एक यह तथ्य भी प्रकाश में आता है कि वीरनिर्वाण से लेकर इस शिलालेख के उट्टंकनकाल (वीर नि० सं० ३७९) तक मूर्तिपूजा और मन्दिरनिर्माण का प्रचलन बौद्धों में भी नहीं हुआ था । यदि उपर्युक्त अवधि में बौद्धों में मूर्तिपूजा अथवा मन्दिरनिर्माण का प्रचलन हो गया होता, तो मौर्य सम्राट् अशोक जैसा अपने समय का बौद्धधर्म का सबसे बड़ा उपासक राजा कलिंगविजय के पश्चात् कलिंग में किसी भव्य बौद्ध मन्दिर अथवा प्रतिमा का निर्माण अवश्य करवाता और सर्वधर्मों के देवायतनों के संस्कार के विरुद से विभूषित खारवेल उस मन्दिर का जीर्णोद्धार अवश्यमेव करवाता तथा उस जीर्णोद्धार का उल्लेख इस शिलालेख में निश्चित रूप से होता। इसी प्रकार उपर्युक्त अवधि में किसी समय जैनधर्म में भी मूर्तिपूजा अथवा मन्दिरनिर्माण को कोई स्थान मिला होता, तो खारवेल के सिंहासनारूढ़ होने के केवल २६ वर्ष पहले स्वर्गस्थ हुआ मौर्य सम्राट् सम्प्रति भी कलिंग की राजधानी अथवा पवित्र कुमारीपर्वत पर अवश्यमेव जिनमूर्ति की प्रतिष्ठापना और जैनमन्दिर का निर्माण करवाता। खारवेल के सिंहासनारूढ़ होने से पूर्व कलिंग में आये तूफान में जिस प्रकार राजप्रासाद, भवन- गोपुर, प्राकार आदि भूलुण्ठित अथवा क्षतिग्रस्त हुए, उसी प्रकार कोई न कोई जैन मन्दिर भी क्षतिग्रस्त होता और परमार्हत खारवेल द्वारा उसके जीर्णोद्धार का इस शिलालेख में अवश्य ही उल्लेख होता । (जै.ध. मौ.इ. / भा. ३ / पृ. २३६ - २३८ ) ।
" पर वस्तुस्थिति इससे पूर्णत: विपरीत है, क्योंकि खारवेल ने अपने १६ वर्ष के राज्यकाल में धर्मरक्षा, धर्माभ्युदय और लोककल्याण के अनेक कार्य किये, पर न किसी मूर्ति की प्रतिष्ठा की, न एक भी मन्दिर का निर्माण करवाया और न केतुभद्र यक्ष की विशालकाय काष्ठमूर्ति के अतिरिक्त किसी मूर्ति अथवा मन्दिर के किसी उत्सव का ही आयोजन किया।
" इस प्रकार इस शिलालेख में उल्लिखित तथ्य सत्यान्वेषी सभी धर्माचार्यों, इतिहासविदों, शोधार्थियों, गवेषकों और प्रबुद्ध तत्त्वजिज्ञासुओं को उन नियुक्तियों, चूर्णियों, महाभाष्यों, पट्टावलियों एवं अन्यान्य ग्रन्थों के उन सभी
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