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अ० ५ / प्र० ३
पुरातत्त्व में दिगम्बर- परम्परा के प्रमाण / ४२५ धार्मिक कार्य-कलापों में अत्यधिक रुचि रखनेवाला महाराजा खारवेल अपने तेरह वर्षों के शासनकाल में राजप्रासादों, नगरद्वारों, नगर- प्राकार, फव्वारों, तालों, बाँधों, बाग-बगीचों, उपवनों का जीर्णोद्धार, पुनर्निर्माण, संस्कार तो करवाये, नृत्यगीत, वाद्य, नाटक, उत्सव, संगोष्ठियों का आयोजन कर नगरनिवासियों का मनोरंजन करे, राजसूययज्ञ के अनुष्ठान के पश्चात् अनेक प्रकार के जनकल्याणकारी कार्य करे, ब्राह्मणों को विपुलतर महार्घ्य या चल-अचल सम्पत्ति का दान करे, अड़तीस लाख मुद्राओं के व्यय से महाविजयप्रासाद का निर्माण करवाये, केतुभद्र यक्ष की तिक्तकाष्ठ से बनी अतिविशालकाय मूर्ति को नगर में महोत्सवपूर्वक निकाले, अर्हत्- निषद्या ( अर्हत्-समाधि) पर याप - जापकों द्वारा प्राणिमात्र के कुशलक्षेम के लिए जाप करवाये । याप - जापकों को राजभृतियाँ प्रदान कर उन्हें उसी प्रकार जप- जाप में निरत रहने की आज्ञा दे और अपनी पट्टमहिषी घृष्टि के लिए अर्हत्-समाधि के पास ही पचहत्तर लाख मुद्राएँ व्यय कर रत्नजटित स्तम्भोंवाला अतिरमणीय अतिविशाल विश्रामागार बनवाये, पर एक भी मूर्ति की प्रतिष्ठा न करे, एक भी मन्दिर का निर्माण अथवा जीर्णोद्धार न करे, किसी जिनमूर्ति अथवा जिनमन्दिर की पूजा आदि के लिए एक भी राजभृति प्रदान न करे, तो इससे यही सिद्ध होता है कि खारवेल के शासनकाल तक जैनधर्म में मूर्तिपूजा और मन्दिर निर्माण का न केवल प्रचलन ही नहीं हुआ था, अपितु मूर्तिपूजा के लिये धर्मकृत्यों में विधिविधान न होने के कारण किसी भी जैनधर्मालम्बी के मन, मस्तिष्क एवं हृदय में इनके लिये कोई स्थान भी नहीं था । यदि खारवेल के शासनकाल तक जैन धर्मावलम्बियों में मूर्तिपूजा का प्रचलन हो गया होता, तो जहाँ खारवेल ने सुविहित - परम्परा श्रमणों के लिए संघायन का निर्माण करवाया, अर्हत्-समाधि (निषद्या) पर क्षेम - कुशल हेतु जप-जाप करनेवालों के लिए राजभृतियाँ प्रदान कीं, महारानी के लिये यदा कदा उस रमणीय पंवित्र पर्वत पर आगमन के अवसरों पर विश्राम हेतु अर्हत्-समाधि स्थल के समीप भव्य विश्रामागार बनवाया, उसी प्रकार वहाँ वे एक न एक जिनमन्दिर का निर्माण एवं मूर्ति की प्रतिष्ठा अवश्य करवाते और उनकी नियमित पूजा - व्यवस्था हेतु पुजारियों के लिये भूमिदान, ग्रामदान आदि के रूप में राजभृति की व्यवस्था निश्चितरूप से करते एवं शिलालेख में अन्यान्य कार्यों का जिस प्रकार क्रमशः उल्लेख किया गया है, उसी प्रकार इन आत्यन्तिक महत्त्व के कार्यों का भी निश्चितरूप से उल्लेख किया जाता। इस शिलालेख की १७वीं पंक्ति में खारवेल को सर्वदेवायतन-संस्कारक बताया गया है। यदि उसके राज्यकाल तक जैनों अथवा बौद्धों में मूर्तिपूजा एवं मन्दिरनिर्माण का प्रचलन हो गया होता, तो वे जैन एवं बौद्ध मन्दिर भी तूफान में अवश्यमेव क्षतिग्रस्त होते और खारवेल तूफान में क्षतिग्रस्त हुए प्रासाद, प्राकार, राजमहल, उपवन, फव्वारों आदि की तरह उन जैन मन्दिरों व बौद्ध मन्दिरों का जीर्णोद्धार भी अवश्य करवाता। इतना ही नहीं, यदि खारवेल के समय तक जैनों अथवा बौद्धों में मूर्तिपूजा एवं मन्दिरनिर्माण
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