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________________ ४२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०५/प्र०३ कर आगम वाचना की। आर्य स्कन्दिल की भाँति आचार्य नागार्जुन को भी उस आगमवाचना, उस अनुयोगप्रवर्तन के समय लगभग १० वर्ष तक तो वल्लभी में रहना ही पड़ा होगा। आचार्य नागार्जुन भी यदि मूर्तियों एवं मन्दिरों के निर्माण तथा मूर्तिपूजा के पक्षधर होते तो उनके समय की उनके श्रमणोपासकों द्वारा प्रतिष्ठापित मूर्तियों और मन्दिरों के अवशेष-शिलालेख आदि कहीं न कहीं अवश्यमेव उपलब्ध होते। परन्तु आज तक भारत के किसी भाग में इस प्रकार का न कोई शिलालेख ही उपलब्ध हुआ है और न कोई मूर्ति अथवा मन्दिर का अवशेष ही। "आर्य स्कन्दिल से लगभग ५०० वर्ष पूर्व हुए कलिंगसम्राट् महामेघवाहन खारवेल भिक्खुराय के कुमारीपर्वत की हाथीगुम्फा में उटूंकित कराये गये शिलालेख से भी यह तथ्य प्रकाश में आता है कि उसके शासनकाल तक जैनधर्म-संघ में मूर्तिपूजा एवं मन्दिरनिर्माण का प्रचलन नहीं हुआ था।५६ खारवेल का यह शिलालेख जैनधर्म के सम्बन्ध में अब तक प्रकाश में आये हुए शिलालेखों में सबसे प्राचीन और सबसे बड़ा शिलालेख है। इसमें आज तक अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं हुए महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्यों के साथ-साथ खारवेल द्वारा अपने १३ वर्षों (वीर नि० सं० ३१६ से ३२९ तक) के शासनकाल में किये गये सभी महत्त्वपूर्ण कार्यों का विवरण दिया गया है।" (जै. ध. मौ. इ./ भा.३ / पृ.२२६-२३३)। "इस पूरे अभिलेख में एक भी नये जिनमन्दिर के निर्माण का, किसी एक भी प्राचीन जिनमन्दिर के जीर्णोद्धार का, मूर्ति की प्रतिष्ठा का अथवा मूर्ति की पूजा का कहीं नाममात्र के लिए भी उल्लेख नहीं है। इस अभिलेख में कलिंगपति महामेघवाहन खारवेल को प्रजा के क्षेम-कुशल के लिये सदा सतत निरत रहने के कारण 'क्षेमराज,' राज्य, राजकोष और प्रजा की सुख-समृद्धि में सदा अभिवृद्धि करते रहने के कारण वर्द्धराज, भिक्षुओं, जैन श्रमणों का परम भक्त रहने के कारण भिक्षुराज और मगधराज पुष्यमित्र के अत्याचारों से जैनधर्म की अथवा जैनधर्मावलम्बियों की रक्षा करने के कारण धर्मराज की विशिष्ट उपाधियों से विभूषित किया गया है। जिस प्रकार प्रगाढ़ विष्णुभक्ति के परिणामस्वरूप हिन्दू वैष्णवपरम्परा के पुराणों में महाराज अम्बरीष को परमभागवत के पद से विभूषित किया गया है, उसी प्रकार कलिंगपति खारवेल को भी उनकी उत्कट अर्हद्भक्ति को देखते हुए यदि परमार्हत पद से विभूषित किया जाय, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस प्रकार के परमार्हत जिनशासनसेवा आदि ५६. आचार्य हस्तीमल जी ने हाथीगुम्फाभिलेख में 'कलिंगजिन' के उल्लेख को जिनप्रतिमा का उल्लेख नहीं माना है। जिस पंक्ति में यह उल्लेख है, उस बारहवीं पंक्ति का अर्थ उन्होंने इस प्रकार किया है-"और मगध के --- धन को भी वह खारवेल ले गया।" (जै. ध.मौ.इ./ भा.३/ पृ. २३५)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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