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________________ अ०५ / प्र०३ पुरातत्त्व में दिगम्बर-परम्परा के प्रमाण / ४२३ "आर्य स्कन्दिल का नाम जैन इतिहास में अमर रहेगा। श्रुतशास्त्र की रक्षा कर उन्होंने संसार पर अविस्मरणीय अनुपम उपकार किया है। श्वेताम्बर-परम्परा के सभी गणों, गच्छों एवं सम्प्रदायों के अनुयायी सर्वसम्मतरूप से समवेत स्वर में उन्हें अपना महान् उपकारी पूर्वाचार्य मानते हैं। देवर्द्धिगणि-क्षमाश्रमण ने भी नन्दिसूत्र के आदिमंगल में आपको प्रगाढ़ श्रद्धापूर्वक निम्नलिखित भावभरे शब्दों में वन्दन किया है जेसिमिमो अणुओगो पयरइ अन्जावि अड्डभरहम्मि। बहुनगर निग्गयजसे ते वंदे खंदिलायरिए॥ ३३॥ ___ इसी प्रकार एक अज्ञातकर्तृक प्राचीन गाथा में भी आर्य स्कन्दिलाचार्य द्वारा की गई श्रुतरक्षा का उल्लेख उपलब्ध होता है। वह प्राचीन गाथा इस प्रकार है दुभिक्खंमि पणढे पुणरवि मिलिय समणसंघाओ। मिहुराए अणुओगो पवइयो खंदिलो सूरि॥ "अपने युग के लोकपूज्य, महान् अनुयोगप्रवर्तक, आगममर्मज्ञ, श्रुतशास्त्र के रक्षक आचार्य स्कन्दिल के मानस में यदि जिनमन्दिरनिर्माण अथवा मूर्तिपूजा के प्रति किंचित्मात्र भी स्थान अथवा आकर्षण होता तो उनके एक ही परोक्ष इंगित पर दश वर्ष के उनके मथुरावास काल में सहस्रों जिनमूर्तियों और सैकड़ों जिन मन्दिरों का निर्माण हो जाता और कंकाली टीले की खुदाई में अथवा मथुरा के विभिन्न स्थलों में पुरातत्त्व-विभाग द्वारा की गई खुदाइयों में उन मूर्तियों एवं मन्दिरों के अथवा शिलालेखों के अवशेष न्यूनाधिक मात्रा में अवश्यमेव पुरातत्त्व विभाग को प्राप्त होते। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। कंकाली देवी का मन्दिर और जैन-बौद्ध स्तूप आचार्य स्कन्दिल के मथुरा प्रवास से पहले ही भूलुंठित हो कंकाली टीले का रूप धारण कर गये हों, इस प्रकार की आशंका को भी वहाँ से प्राप्त ऐतिहासिक एवं पुरातात्त्विक अवशेषों ने निर्मूल कर दिया। क्योंकि आर्य स्कन्दिल के स्वर्गस्थ होने के ६०-६४ वर्ष पश्चात् का एक शिलालेख, जिस पर संवत् --- ९९ (कनिष्क संवत् २९९) तदनुसार वीर नि० सं० ९०४ उट्टंकित है, कंकाली टीले की खुदाई करते समय उपलब्ध हुआ है। महान् प्रभावक आचार्य स्कन्दिल लगभग वीर नि० सं० ८३० से ८४० तक लगभग १० वर्ष तक मथुरा में रहे पर उनके किसी भी श्रमणोपासक अथवा श्रमणोपासिका ने वीर निर्वाण की ८वीं शताब्दी से ९ वीं शताब्दी के अन्त तक अर्हत्-मूर्ति की प्रतिष्ठा अथवा अर्हत्-मन्दिर का निर्माण नहीं करवाया, यह एक निर्विवाद तथ्य मथुरा के कंकाली टीले एवं अन्यान्य स्थानों से उपलब्ध शिलालेखों से प्रकट होता है। "आर्य स्कन्दिल ने जिस समय मथुरा में आगमवाचना की, ठीक उसी समय आचार्य नागार्जुन ने भी दक्षिण आदि सुदूरस्थ प्रान्तों के मुनिसंघों को वल्लभी में एकत्रित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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