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________________ ४२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०५ / प्र० ३ " प्रथम आगमवाचना की इस ऐतिहासिक घटना से दो तथ्य प्रकाश में आते हैं । प्रथम तो यह कि उक्त प्रथम आगमवाचना में आगमों के परम्परागत पाठों को जिस प्रकार यथावस्थित रूप में व्यवस्थित किया गया था, उसी रूप में वे आगम पाठ समय-समय पर हुई दूसरी, तीसरी और चौथी आगम-वाचनाओं में व्यवस्थित किये जाते रहे। और दूसरा यह तथ्य प्रकाश में आता है कि प्रथम आगमवाचना के समय तक भी जैन धर्मसंघ में मूर्तिपूजा का प्रचलन नहीं हुआ था । यदि उस समय मूर्तिपूजा का प्रचलन हो गया होता, तो उस काल की मूर्तियाँ, मन्दिर अथवा उनके अवशेष अवश्यमेव ही कहीं न कहीं उपलब्ध होते । 44 ९. द्वितीय आगमवाचना वीर नि० सं० ३२९ में कलिंगराज महामेघवाहन खारवेल के प्रयास से कुमारीपर्वत पर हुई । उस आगमवाचना-सम्बन्धी उपलब्ध प्राचीन ऐतिहासिक तथ्यों से भी यही प्रकट होता है कि वीर नि० सं० ३२९ तक भी जैनसंघ में मूर्तिपूजा का अथवा मन्दिर - निर्माण का प्रचलन नहीं हुआ था। उस आगमवाचना के अनन्तर कुमारीपर्वत पर खारवेल महामेघवाहन द्वारा सुविहित परम्परा के श्रमणों के संघहित के कार्यों पर विचार-विमर्श करने हेतु एकत्र होने और बैठने के लिये एक संघायन के निर्माण का, निषद्या पर जाप की व्यवस्था करने का, यापकों की भृति निश्चित करने का तथा महारानी के लिये कुमारीपर्वत पर निषद्या के पास एक विशाल एवं भव्य विश्रामभवन बनवाये जाने का तो उल्लेख उपलब्ध होता है, किन्तु किसी मूर्ति की स्थापना करने का, पूजा करने का अथवा मन्दिर के निर्माण का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । ५५ "१०. तीसरी आगमवाचना वीर नि० सं० ८३० में इक्कीसवें वाचनाचार्य आर्य स्कन्दिल के तत्त्वावधान में मथुरा में हुई और जिस प्रकार चौथी अन्तिम आगमवाचना के समय देवर्द्धिक्षमाश्रमण को समस्त आगमों को पुस्तकारूढ़ करने के लिये वीर नि० सं० ९८० से ९९४ तक अर्थात् लगभग १४-१५ वर्षों तक वल्लभी में रहना पड़ा, उसी प्रकार आर्य स्कन्दिल भी वीर नि० सं० ८३० से ८४० तक आगमवाचना को सम्पन्न करने के लिए मथुरा में रहे। यदि जैनसंघ में सर्वसम्मतरूप से मूर्तिपूजा का प्रचलन हो गया होता, तो आर्य स्कन्दिल जैसे युगप्रवर्तक एवं श्रुतशास्त्र की रक्षा करनेवाले महान् आचार्य के १० वर्ष तक मथुरा में ही रहने की अवधि में निश्चित रूप से अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा और जिनमंदिरों का निर्माण उनके तत्त्वावधान में हुआ होता। पर स्थिति इससे बिल्कुल भिन्न है। उस अवधि की बात तो दूर, उस पूरे शतक में एक भी जिनमूर्ति अथवा जिनमन्दिर के निर्माण का उल्लेख कहीं नहीं मिलता । ५५. " हाथीगुंफा में उपलब्ध कलिंगराज महामेघवाहन खारवेल के शिलालेख की पंक्ति सं० १५ और १६ ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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