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________________ अ०५/प्र०३ पुरातत्त्व में दिगम्बर-परम्परा के प्रमाण / ४२१ भीषण दुष्काल के समाप्त हो जाने पर भारत के सुदूरस्थ विभिन्न भागों में गये हुए साधु पुनः पाटलिपुत्र में लौटे। दुष्कालजन्य संकटकालीन स्थिति में शास्त्रों के अनभ्यास के परिणामस्वरूप श्रुतपरम्परा से कण्ठस्थ शास्त्रों के जिन पाठों को श्रमण भूल गये थे, उन पाठों को परस्पर एक-दूसरे से सुनकर उन्होंने शास्त्रों के ज्ञान को पुनः व्यवस्थित किया। पाटलिपुत्र में हुई इस प्रथम आगमवाचना में एकादशांगी को पूर्ववत् व्यवस्थित एवं सुरक्षित कर लिया गया, किन्तु बारहवें अंग दृष्टिवाद को व्यवस्थित करने में वह श्रमणसंघ पूर्णरूपेण असफल ही रहा, जो कि पाटलिपुत्र में एकत्रित हुआ था। उस समय समस्त श्रमणसंघ में चौदह पूर्वो के ज्ञान के धारक एक मात्र अन्तिम श्रृंतकेवली आचार्य भद्रबाहु ही अवशिष्ट रह गये थे, परन्तु वे उस समय नेपाल प्रदेश में महाप्राणध्यान की साधना में निरत थे। "इस प्रकार की स्थिति में बड़े विचार विनिमय के अनन्तर महामेधावी युवावय के श्रमण स्थूलभद्र को ५०० अन्य मेधावी मुनियों के साथ भद्रबाहु की सेवा में रहकर चतुर्दश पूर्वो का ज्ञान प्राप्त करने और इस प्रकार श्रुतज्ञान की रक्षा करने के हेतु संघादेश से नेपाल भेजा गया। आचार्य भद्रबाहु उस समय उस अद्भुत चमत्कारी महाप्राण की साधना में निरत थे, जिसकी साधना के अनन्तर साधक अन्तर्मुहूर्त में ही सम्पूर्ण द्वादशांगी का परावर्तन (पुनरावर्तन) करने में समर्थ हो जाता है। ५४ इस प्रकार की महती साधना में निरत रहने के उपरान्त भी आचार्य भद्रबाहु को संघादेश शिरोधार्य कर उन साधुओं को पूर्वो की वाचना देना प्रारम्भ करना पड़ा। महामुनि स्थूलभद्र के अतिरिक्त शेष सब मुनि पूर्वो की वाचना लेने में असमर्थ रहे। स्थूलभद्र ने लगभग ८ पूर्वो की वाचना नेपाल में रहते हुए आचार्य भद्रबाहु से ली और नौवें तथा दशवें पूर्व की वाचना नेपाल से पाटलिपुत्र की ओर भद्रबाहु के विहार काल में तथा पाटलिपुत्र में ली। 'दश पूर्वो की वाचना पूर्ण होने पर दर्शनार्थ आई हुई अपनी बहिनों महासाध्वी यक्षा एवं यक्षदिन्ना को मुनि स्थूलभद्र ने अपनी विद्या का चमत्कार बताया। इस घटना के परिणाम स्वरूप आचार्य भद्रबाहु ने महामुनि स्थूलभद्र जैसे सुपात्र शिष्य को भी अन्तिम चार पूर्वो के ज्ञान के लिये अपात्र घोषित कर दिया। संघ द्वारा अनुनय-विनयपूर्ण अनुरोध करने पर उन्होंने महामुनि स्थूलभद्र को अन्तिम चार पूर्वो की केवल मूलपाठ की ही वाचना दी, अर्थसहित वाचना फिर भी नहीं दी। ५४. "यह कोई असम्भव अथवा असाध्य नहीं, दुस्साध्य अवश्य है, क्योंकि स्वप्नशास्त्रियों के अभिमतानुसार लम्बे से लम्बा स्वप्न वस्तुतः कतिपय इने-गिने क्षणों का ही होता है। सुषुप्त्यवस्था में कुछ ही क्षणों के स्वप्न में प्राणी वर्षों में देखे जा सकनेवाले दृश्य देख लेता है, इससे अनुमान किया जाता है कि महाप्राण ध्यान में यह संभव हो सकता है।" (जैनधर्म का मौलिक इतिहास/ भाग ३/प्र.२२६-२३३)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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