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________________ ४२० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०५ / प्र० ३ में प्रामाणिक तथ्य जैन आगमों से ही उपलब्ध हो सकते हैं, न कि अन्य ग्रन्थों अथवा साहित्य से । " ६. जैनागम वस्तुतः भगवान् महावीर की देशनाओं के आधार पर गणधरों द्वारा ग्रथित किये गये, यह एक निर्विवाद एवं सर्वसम्मत तथ्य है। मूल आगमों में, आचारांग आदि ११ अंगशास्त्र, जो 'निग्गंठ पावयण', 'गणिपिटक' आदि नामों से विख्यात हैं और जो जैनधर्म के सिद्धान्तों, जैनधर्म की मान्यताओं के परम प्रामाणिक, मूल आधार माने जाते हैं, उनमें मूर्तिपूजा का, जिनमन्दिरों के निर्माण का जब कहीं नामोल्लेख तक नहीं है, तो इसका सीधा सा अर्थ यही होता है कि तीर्थंकर भगवान् महावीर ने अपनी प्रथम देशना से लेकर अन्तिम देशना तक में जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठापना करने, मन्दिर निर्माण करने और जिमप्रतिमा की पूजा करने के सम्बन्ध में कभी एक भी शब्द अपने मुखारविन्द से नहीं कहा। इस बात से तो प्रत्येक जैन पूर्णतः सहमत होगा कि वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकर प्रभु श्रमण भगवान् महावीर की देशनाओं का एक-एक शब्द सभी जैनों के लिये सदा शिरोधार्य और परम मान्य है । यदि संसार के भव्य प्राणियों के लिये जिन प्रतिमा की पूजा करना निःश्रेयस्कर होता, तो 'जगजीव हियदयट्टयाए' चतुर्विध धर्मतीर्थ की स्थापना करते समय साधु साध्वी, श्रावकं अथवा श्राविकावर्ग में से सभी के लिये अथवा किसी वर्गविशेष के लिये जिनप्रतिमा की पूजा का भी स्पष्ट शब्दों में उसी प्रकार विस्तृत रूप से उपदेश देते, जिस प्रकार कि मुक्तिप्राप्ति के लिये परमावश्यक अन्यान्य कर्त्तव्यों का उपदेश दिया था । आगमों में चतुर्विध तीर्थ के कर्त्तव्यों के रूप में मूर्तिपूजा का कहीं कोई उल्लेख नहीं है, इससे यही फलित होता है कि सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, तीर्थंकर भगवान् महावीर ने अपनी किसी भी देशना में मूर्तिपूजा करने अथवा मन्दिर निर्माण करने का उपदेश नहीं दिया । “७. जैनधर्म अथवा आगम-सम्बन्धी निर्वाणोत्तरकालीन प्रमुख ऐतिहासिक घटनाओं पर भी यदि निष्पक्षरूपेण दृष्टिपात किया जाय, तो यही तथ्य प्रकाश में आता है कि पहली आगमवाचना के समय से लेकर चौथी आगमवाचना तक की कालावधि में आगमानुसार विशुद्ध श्रमणाचार, श्रावकाचार एवं धर्म के मूल अध्यात्मप्रधान स्वरूप का पालन करनेवाले जैनसंघ में मूर्तिपूजा एवं मन्दिरादि के निर्माण का प्रचलन नहीं हुआ था। ८. पहली आगमवाचना वीर नि० सं० १६० के आस-पास आर्य स्थूलभद्र के तत्वावधान में पाटलिपुत्र में हुई। इस पहली आगमवाचना के सम्बन्ध में जैनवाङ्मय में कोई क्रमबद्ध विस्तृत विवरण वर्तमान काल में उपलब्ध नहीं होता । तित्थोगालीपइन्नय नामक प्राचीन ग्रन्थ में अतिसंक्षेपतः केवल इतना ही विवरण उपलब्ध होता है कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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