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________________ अ०५/प्र०३ पुरातत्त्व में दिगम्बर-परम्परा के प्रमाण / ४१९ जीवों पर करुणा कर उनके हित के लिये सर्वज्ञ, सर्वदर्शी श्रमण भगवान् महावीर द्वारा तीर्थप्रवर्तनकाल में दिये गये अमोघ उपदेशों के आधार पर गणधरों द्वारा ग्रथित जैनागमों में मूर्तिपूजा, मन्दिरनिर्माण आदि का साधु-साध्वी-वर्ग के लिये न सही, किन्तु श्रावक-श्राविका-वर्ग के लिये तो अवश्यमेव आवश्यक कर्त्तव्य के रूप में उल्लेख होता। "४. मूलागमों में आनन्द, कामदेव, शंख, पोखली, उदायन आदि श्रावक-रत्नों के पौषधोपवासों, श्रावक की एकादश प्रतिमारूप कठोर व्रत-धारणा, सुपात्रदान, पौषधशालागमन आदि विभिन्न धर्मकृत्यों का विस्तृत विवरण है, किन्तु कहीं पर भी यह उल्लेख नहीं है कि वे एक बार भी किसी देवमन्दिर में गये हों अथवा उनके द्वारा किसी जिन-प्रतिमा की स्थापना या पूजा की गई हो। "मूल आगमों में श्री कृष्ण द्वारा की गई धर्म-दलाली एवं उस उत्कृष्ट धर्मदलाली के परिणामस्वरूप तीर्थंकर-नामगोत्रोपार्जन का उल्लेख है। इसी तरह मगधसम्राट बिम्बसार श्रेणिक द्वारा अमारी पटह-घोषणा एवं धर्मदलाली का तथा उस धर्मदलाली के फलस्वरूप उनके भी तीर्थंकरनाम-गोत्रकर्म के उपार्जन का पाठ आया है। साथ ही प्रदेशी राजा द्वारा दानशाला खोलने आदि सुकृत्यों का स्पष्टरूप से उल्लेख है। परन्तु इनमें से किसी के भी द्वारा जिनप्रतिमा की पूजा करने अथवा जिनमन्दिर के निर्माण कराये जाने का कहीं कोई नाममात्र के लिये भी उल्लेख नहीं है। "५. मूल आगमों में त्रिकालदर्शी प्रभु महावीर ने आदर्श श्रावकों के घरों की भौतिक विपुल ऋद्धि-सिद्धि का भी वर्णन किया है, अनेक नगरों का वर्णन किया है, पर इन वर्णनों में जिनप्रतिमा और जिनमन्दिर का कहीं नामोल्लेख तक नहीं है। यदि उस समय जैनधर्म की मूल परम्परा में मूर्तिपूजा का कोई स्थान होता, तो उन आदर्श श्रावकों के घरों में अथवा नगरों के प्रांगणों में कहीं न कहीं तो जिनमन्दिर अथवा जिनप्रतिमा के अस्तित्व का उल्लेख अवश्य ही होता। जिनप्रतिमा की पूजा की बात तो दूर, वस्तुतः श्रावकों के घरों और नगरों तक में जिनमन्दिरों-जिनप्रतिमाओं के अस्तित्व तक का उल्लेख नहीं है। इससे यही प्रमाणित होता है कि जैनधर्म की मूल परम्परा में प्रारम्भ में मूर्तिपूजा के लिये कहीं कोई स्थान नहीं था। जैनधर्म का तीर्थप्रवर्तनकाल में कैसा स्वरूप था, उस समय जैनधर्म में क्या मान्य था और क्या अमान्य, क्या-क्या करणीय था और क्या-क्या अकरणीय, एतद्विषयक तथ्य आगमों से ही प्राप्त किये जा सकते हैं। जिस प्रकार कि हीरा हीरे की खान से ही उपलब्ध हो सकता है, पन्ने अथवा माणिक्य की खान से नहीं, ठीक उसी प्रकार जैनधर्म की मान्यताओं अथवा जैनधर्म के मूल विशुद्ध स्वरूप के सम्बन्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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