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४१८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०५ / प्र० ३
महोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणतिक्कमणिज्जा, णिग्गंथे पावयणे निस्संकिया निक्कंखिया, निवितिगिच्छा, लद्धट्ठा, गहियट्ठा, पुच्छियट्ठा, अभिगयट्ठा विणिच्छियट्ठा अट्ठिमिंजपेमा-अणूरागरत्ता, अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अट्ठे अयं परमट्ठे, से अणट्टे असियफलिहा, अवंगुयदुवारा, चियत्तंतेउरघरप्पवेसा, बहूहिं सीलव्वय-गुण- वेरमण-पच्चक्खाणपोसहोववासेहिं चाउद्दसट्टमुट्ठि - पुण्णमासिणीसु परिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेमाणां समणे निग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइम - साइमेणं, वत्थपडिग्गह- कंबल - पायपुंछणेणं, पीठफलग सेज्जासंथारएणं, ओसह - भेसज्जेण पडिलाभेमाणा अहापडिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरंति । "
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' अर्थात् तुंगिया नगरी में बहुत से श्रमणोपासक रहते थे। वे धनसम्पन्न और वैभवशाली थे। उनके भवन बड़े विशाल एवं विस्तीर्ण थे। वे शयन, आसन, यान, वाहन से सम्पन्न थे। उनके पास विपुल धन, चाँदी तथा सोना था। वे रुपया ब्याज पर देकर बहुत सा धन अर्जित करते थे । वे अनेक कलाओं में निपुण थे । उन श्रमणोपासकों के घरों में अनेक प्रकार के भोजन - पान आदि तैयार किये जाते थे। वे लोग अनेक दास-दासियों, गायों, भैंसों एवं भेड़ों आदि से समृद्ध थे । वे जीव - अजीव के स्वरूप को एवं पुण्य और पाप को सम्यग्रूपेण जानते थे । वे आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध और मोक्ष के स्वरूप से अवगत थे । देव, असुर, नाग, सुवर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग आदि तक उन्हें निर्ग्रन्थ- प्रवचन से नहीं डिगा सकते थे । निर्ग्रन्थ-प्रवचन में वे शंकारहित, आकांक्षारहित और विचिकित्सारहित थे। शास्त्र के अर्थ को उन्होंने ग्रहण किया था, अभिगत किया था और समझबूझ कर उसका निश्चय किया था । निर्ग्रन्थ-प्रवचन के प्रति उनके रोम-रोम में प्रेम व्याप्त था। वे केवल एक निर्ग्रन्थ प्रवचन के अतिरिक्त शेष सबको निष्प्रयोजन मानते थे। उनकी उदारता कारण उनके द्वार सदा सब के लिये खुले रहते थे। वे जिस किसी के घर अथवा अन्तःपुर में जाते, वहाँ प्रीति ही उत्पन्न करते । शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान, पौषध एवं उपवासों के द्वारा चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णमासी के दिन वे पूर्ण पौषध का पालन करते । श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक एवं कल्पनीय अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोंछन (रजोहरण), आसन, फलक, शय्या, संस्तारक, औषध और भेषज से प्रतिलाभित करते हुए वे यथाप्रतिगृहीत तप कर्म द्वारा आत्मध्यान में लीन हो विचरण करते रहते थे ।
'उपर्युद्धत इस पाठ में तुंगियानगरी के उन आदर्श श्रमणोपासकों की दिनचर्या की प्रत्येक धार्मिक क्रिया का विशद विवरण दिया हुआ है, किन्तु मूर्तिपूजा अथवा जिनमन्दिर का कहीं कोई उल्लेख नहीं है । "जिनप्रतिमा जिनसारिखी ( सदृशी ) " जैसी मान्यता का जैनधर्म में यदि उस समय किंचिन्मात्र भी स्थान होता, तो संसार के समस्त
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