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________________ अ०५/प्र०३ पुरातत्त्व में दिगम्बर-परम्परा के प्रमाण / ४१७ की पुकार के अनुसार प्रारम्भ में रत्नत्रय की एवं तत्पश्चात् चरणयुगल और अन्ततोगत्वा मूर्ति की पूजा प्रचलित हुई हो।" (जै.ध.मौ.इ. / भा.३ / पृ. २२०-२२१)। _ "इस तरह यापनीयपरम्परा ने रत्नत्रय की पूजा, तीर्थंकरों के चरणचिह्नों की पूजा और मूर्तिपूजा को किस-किस समय किस क्रम से अपनाया, इस प्रश्न के समाधान के लिये आगमिक काल से लेकर यापनीयसंघ के एक सुदृढ़ संघ के रूप में उभरने और कतिपय प्रदेशों में श्वेताम्बरसंघ और दिगम्बरसंघ से भी अपेक्षाकृत अधिक लोकप्रिय बनने के समय तक की ऐतिहासिक घटनाओं पर पूर्णतः निष्पक्ष होकर सूक्ष्मदृष्टि से विचार करना होगा। इस सन्दर्भ में निम्नलिखित तथ्य विचारणीय हैं "१. आचारांग आदि सभी आगमों में से किसी एक भी आगम में चतुर्विध तीर्थ के साधु-साध्वी, श्रावक अथवा श्राविका वर्ग के लिये समुच्चय रूप से अथवा गत रूप से इस प्रकार का एक भी उल्लेख गहन खोज के अनन्तर भी नहीं उपलब्ध होता, जिसमें यह कहा गया हो कि व्रत, नियम, प्रत्याख्यान, पौषध, उपवास, स्वाध्याय आदि आत्मोत्थान के दैनन्दिन कार्यों के समान, मूर्तिपूजा, मन्दिरनिर्माण आदि कार्य भी प्रत्येक साधक के लिये अथवा सभी साधकों के लिये परमावश्यक अथवा अनिवार्य कर्तव्य हैं। "२. पाँचवें अंगशास्त्र भगवतीसूत्र (व्याख्याप्रज्ञप्ति) में गणधर इन्द्रभूति द्वारा पूछे गये ३६००० प्रश्नों एवं भगवान् महावीर द्वारा दिये गये उत्तरों का विशद वर्णन है। आध्यात्मिक अभ्युत्थान से सम्बन्ध रखनेवाला एक भी विषय इन प्रश्नोत्तरों में अछूता नहीं रहा है। आत्मोन्नति-विषयक सभी तथ्यातथ्यों का विवेचन इन प्रश्नोत्तरों में समाविष्ट है। इस तरह सभी प्रकार की जिज्ञासाओं का शमन एवं सन्देहों का निवारण करनेवाले उन ३६ हजार प्रश्नोत्तरों में कहीं एक में भी जिनमन्दिर के निर्माण, उसके अस्तित्व अथवा जिनमूर्ति की पूजा का कोई उल्लेख नहीं है। "३. भगवतीसूत्र के दूसरे शतक में तुंगिया नगरी के श्रमणोपासकों के सुसमृद्ध जीवन, उनकी धर्म के प्रति प्रगाढ़ आस्था, उनके धार्मिक कार्यकलापों आदि का विशद वर्णन किया गया है। उसमें भी जिनमन्दिर अथवा जिनमूर्ति की पूजा का कहीं नामोल्लेख तक नहीं है। भगवतीसूत्र में एतद्विषयक विवरण निम्नलिखित रूप में हैं "तत्थ णं तुंगियाए नयरीए बहवे समणोवासया परिवसंति अड्ढा, दित्ता, वित्थिन्न विपुल भवणा सयणासण-जाणा वाहणइण्णा बहुधण बहुजायरूव-रयया, आयोग-पयोगसंपउत्ता, विच्छड्डियविपुल-भत्तापाण, बहुदासीदास-गो-महिस-गवेलयप्पभूया, बहुजणस्स अपरिभूया, अभिगयजीवाजीवा, उबलद्धपुण्णपावा, आसव-संवर-निज्जर-किरिया-अहिकरण-बंध मोक्खकुसला, असहेज्ज देवासुरनाग-सुवण्ण-जक्ख-रक्खस-किन्नर-किंपुरिस-गरुल-गंधव्व Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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