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४१६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ० ५ / प्र० ३
कारण मानते हों, वे उनका दर्शन-पूजन कैसे कर सकते हैं? तथा श्वेताम्बरों के मस्तिष्क में नग्न जिनप्रतिमा की कल्पना आ ही नहीं सकती, क्योंकि उनके अनुसार 'जिन' नग्न दिखाई ही नहीं देते।
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प्राचीन श्वेताम्बरपरम्परा में मूर्तिपूजा का
अभाव
दूसरी ओर आधुनिकयुग के प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य श्री हस्तीमल जी मानते हैं कि श्वेताम्बर - आगमों में मूर्तिपूजा का विधान ही नहीं किया गया है, न ही प्राचीनकाल में श्वेताम्बर - परम्परा में मन्दिरों और मूर्तियों का निर्माण किया गया। अपने मत का प्रतिपादन करते हुए हुए वे जैनधर्म का मौलिक इतिहास के तृतीय भाग में लिखते हैं
" दर्शनप्राभृत के टीकाकार दिगम्बराचार्य श्रुतसागर सूरि ने दर्शनप्राभृत की टीका में जो यापनीयपरम्परा की मान्यताओं का दिग्दर्शन किया है, उसमें यापनीयों के लिये लिखा है "रत्नत्रयं पूजयन्ति ।" इससे यह प्रतीत होता है कि प्रारम्भिक काल में यापनीय साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका गण रत्नत्रय की पूजा करते थे, न कि मूर्तिपूजा । एक स्थान में नियत निवास प्रारम्भ करने के पश्चात् चैत्यवासियों की देखा-देखी सम्भवतः यापनीयों में भी मूर्तिपूजा का प्रचलन प्रारम्भ हुआ हो, ऐसा अनुमान किया जाता है। जैनिज्म इन अरली मीडिएवल कर्नाटक नामक अपनी पुस्तक में रामभूषणप्रसाद सिंह ने लिखा है
"Naturally the early Jainas did not practice image worship, which finds no place in the Jaina canonical literature. The early Digambara texts from Karnataka do not furnish authentic information on this point, and the description of their मूल गुण and उत्तर गुण meant for lay worshippers do not refer to image worship. But idol worship first appeared in the early centuries of the christian era, and elaborate rules were developed for performing the different rituals of Jaina worship during early mediaval times.”53
" मूर्ति पूजा के सम्बन्ध में एक नहीं, अपितु अनेक निष्पक्ष विद्वानों का अभिमत है कि प्राचीन काल में जैन धर्मावलम्बियों में मूर्तिपूजा का प्रचलन नहीं था । यापनीयों के विषय में श्रुतसागर के "रत्नत्रयं पूजयन्ति " इस उल्लेख से यही अनुमान लगाया जाता है कि एक मात्र आध्यात्मिक भावपूजा में अटूट आस्था रखनेवाले जैनों में समय
53. रामभूषणप्रसाद सिंह : 'जैनिज्म इन अरली मीडिएवल कर्णाटक' / पृ. २३/ मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली, सन् १९७५ ।
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