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________________ तृतीय प्रकरण श्वेताम्बर सवस्त्र-जिनप्रतिमाओं के निर्माण का इतिहास ईसा की छठी शताब्दी से श्वेताम्बरीय सवस्त्राभूषण जिनप्रतिमाओं के निर्माण का इतिहास जीवन्त स्वामी की प्रतिमाओं के निर्माण से शुरू होता है। भगवान् महावीर की राजमुकुट एवं राजसी वस्त्राभूषणों से अलंकृत, कायोत्सर्ग-मुद्रा में अवस्थित प्रतिमाएँ श्वेताम्बरसाहित्य में 'जीवन्त स्वामी की प्रतिमा' नाम से प्रसिद्ध हैं।८ "आवश्यकचूर्णि, निशीथचूर्णि एवं वासुदेवहिंडी में उल्लेख मिलता है कि कुमारकाल में तीर्थंकर महावीर जब अपने राजप्रासाद में धर्मध्यान किया करते थे, तभी उनकी एक चन्दन की प्रतिमा निर्मित करायी गयी थी, जो वीतभय-पट्टन (सिन्धु-सौवीर) के नरेश उदयन के हाथ आ लगी। उज्जयिनी के राजा प्रद्योत ने उसके स्थान पर वैसी ही काष्ठप्रतिमा बनाकर रख दी, और मूल प्रतिमा को अपने राज्य में ले आया तथा विदिशा में प्रतिष्ठित करा दी, जहाँ वह दीर्घकाल तक पूजी जाती रही। वह इतनी लोकप्रिय हुई कि उसके अनुकरण पर जीवन्तस्वामी की मर्ति बनवाने की प्रथा चल पडी। इस साहित्यवर्णित प्रथा के अस्तित्व की पुष्टि अकोटा (बड़ौदा जनपद) में प्राप्त जीवन्त स्वामी की ब्रोंजधातुनिर्मित दो प्रतिमाओं से होती है। उनमें से एक पर लेख है. जिसमें उसे 'जीवन्तसामि-प्रतिमा' कहा गया है, और यह उल्लेख है कि इसे चन्द्रकुल की नागेश्वरी श्राविका ने दान किया था। लिपि के स्वरूप से यह छठी शती ई० के मध्यभाग (५५० ई०) की अनुमानित की गई है। ये दोनों मूर्तियाँ कायोत्सर्ग ध्यान मुद्रा में हैं, किन्तु शरीर पर वस्त्राभूषण और अलंकरण राजकुमारोचित है। मस्तक पर ऊँचा मुकुट है, जिसके नीचे दोनों कन्धों पर केशकलाप झूल रहा है। गले में हारादि, कानों में कुण्डल, दोनों बाहुओं पर चौड़े भुजबन्ध व हाथों में कड़े और कटिबन्ध आदि आभूषण हैं। मुँह पर स्मित व प्रसादभाव झलक रहा है। भावाभिव्यक्ति व अलंकरण में गुप्तकालीन व तदुत्तरशैली का प्रभाव स्पष्ट है।" ४९ "धातु की सवस्त्र जिन-प्रतिमा राजपूताने में सिरोही जनपद के अन्तर्गत वसन्तगढ़ 48. "The tradition of Jivantsvāmī-images (i.e.images of Mahāvīra standing in meditation with a crown and ornaments on his person)" --- / Dr. U. P. Shah : 'Studies In Jaina Art', p.4. ४९. क-डॉ० हीरालाल जैन : भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान / पृ.३५१-३५२। - ख-डॉ० यू० पी० शाह : स्टडीज इन जैन आर्ट / पृ. ४। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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