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४१२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०५/प्र०२ अर्धफालक-सम्प्रदाय द्वारा प्रतिष्ठापित दिगम्बर-जिनप्रतिमाओं से भी सिद्ध होता है कि दिगम्बर-परम्परा कुषाणकाल (प्रथम शताब्दी ई०) से पूर्व विद्यमान थी।
गुप्तकालीन जिनप्रतिमाएँ डॉ० हीरालाल जी जैन इस काल की प्रतिमाओं का परिचय देते हुए लिखते हैं-"यह युग ईसा की चौथी शती ई० से प्रारंभ होता है। इस युग की ३७ प्रतिमाओं का परिचय मथुरा-संग्रहालय की सूची में कराया गया है। --- गुप्तसम्राट् कुमारगुप्त प्रथम के काल में गुप्त सं० १०६ की बनी हुई विदिशा के समीप की उदयगिरि की गुफा में उत्कीर्ण वह पार्श्वनाथ की मूर्ति भी इस काल की मूर्तिकला के लिए ध्यान देने योग्य है। दुर्भाग्यतः मूर्ति खण्डित हो चुकी है, तथापि उसके ऊपर का नागफण अपने भयंकर दाँतों से बड़ा प्रभावशाली और अपने देव की रक्षा के लिए तत्पर दिखाई देता है। उत्तरप्रदेश के कहाऊँ नामक स्थान से प्राप्त गुप्त सं० १४१ के लेख-सहित वह स्तम्भ भी यहाँ उल्लेखनीय है, जिसमें पार्श्वनाथ की तथा अन्य चार तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। इसी काल की अनेक जैन प्रतिमाएं ग्वालियर के पास के किले, बेसनगर, बूढ़ी चंदेरी व देवगढ़ आदि अनेक स्थानों से प्राप्त हुई हैं।"४६ ये सब जिनप्रतिमाएँ नग्न होने से दिगम्बर-सम्प्रदाय की हैं। अतः इनसे चतुर्थ शताब्दी ई० में भी दिगम्बर-परम्परा के अस्तित्व का बोध होता है।
बाहुबली की प्रतिमाएँ बाहुबली की सभी प्रतिमाएँ कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं और पूर्णतः नग्न हैं। उनका परिचय डॉ० हीरालाल जी जैन ने इस प्रकार दिया है-"बादामी की मूर्ति लगभग सातवीं शती में निर्मित साढ़े सात फुट ऊँची है। दूसरी प्रतिमा ऐलोरा के 'छोटे कैलाश' नामक जैन शिला-मन्दिर की इन्द्रसभा की दक्षिणी दीवार पर उत्कीर्ण है। इस गुफा का निर्माणकाल लगभग ८ वीं शती माना जाता है। तीसरी मूर्ति देवगढ़ के शान्तिनाथमन्दिर (८६२ ई०) में है। --- किन्तु इन सबसे विशाल और सुप्रसिद्ध मैसूर राज्य के अन्तर्गत श्रवणबेलगोला के विन्ध्यगिरि पर विराजमान वह मूर्ति है, जिसकी प्रतिष्ठा गंगनरेश राजमल्ल के महामंत्री चामुण्डराय ने १०-११ वीं शती में कराई थी। यह मूर्ति ५६ फुट ३ इंच ऊँची है। --- इसी मूर्ति के अनुकरण पर कारकल में सन् १४३२ ई० में ४१ फुट ६ इंच ऊँची तथा वेणूर में १६०४ ई० में ३५ फुट ऊँची
४६. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान / पृ. ३४६-३४७।
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