________________
अ०५/प्र०२
पुरातत्त्व में दिगम्बर-परम्परा के प्रमाण / ४११ पृष्ठ भाग में पैरों से लगाकर ऊपर तक स्पष्ट दिखाई देते हैं। इसकी आकृति लोहानीपुर और हड़प्पा की मस्तकहीन कायोत्सर्ग-प्रतिमाओं से बहुत साम्य रखती है। विद्वानों का मत है कि यह मूर्ति मौर्यकालीन होनी चाहिए और वह ईसापूर्व प्रथम शताब्दी से बाद की तो हो ही नहीं सकती। ०५
मथुरा-जिनप्रतिमाएँ मथुरा के देवनिर्मित स्तूप अर्थात् कंकालीटीले की खुदाई से उपलब्ध कुषाणकालीन जिनप्रतिमाओं (प्रथम-द्वितीय शती ई०) का विवरण पूर्व (प्रकरण १ / शी.४-८) में दिया जा चुका है। वहाँ से जितनी भी जिनप्रतिमाएँ मिली हैं, वे सब नग्न हैं। अतः वे नग्नत्व-विरोधी श्वेताम्बर-सम्प्रदाय द्वारा प्रतिष्ठापित तो हैं ही नहीं, यह निर्विवाद है। वे दिगम्बर और अर्धफालक सम्प्रदायों द्वारा पृथक्-पृथक् रूप से प्रतिष्ठापित की गई थीं। जिन नग्न प्रतिमाओं के पादपीठ या आयागपट्ट में अर्धफालकधारी नग्न साधुओं की प्रतिकृतियाँ हैं, वे अर्धफालक-सम्प्रदाय द्वारा प्रतिष्ठापित की गई थीं और जिनमें उनका अभाव है, वे दिगम्बरसम्प्रदाय द्वारा प्रतिष्ठापित हुई थीं।
कोट्टिकगण आदि गण-गच्छों का उस समय दिगम्बरों में भी होना संभव है और अर्धफालक सम्प्रदाय में भी। डॉ० सागरमल जी ने अपने ग्रन्थ जैनधर्म की ऐतिहासिक विकासयात्रा में बतलाया है कि कल्पसूत्र की स्थविरावली में गोदासगण
और उसकी ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षीया, पौण्ड्रवर्धनिका और दासीकाटिका, इन चार शाखाओं का उल्लेख है और कहा है कि इनका सम्बन्ध दक्षिणप्रस्थित श्रुतकेवली भद्रबाहु की अचेलक निर्ग्रन्थपरम्परा से था। (देखिये, अध्याय ६ / प्रकरण २/ शीर्षक २)। इससे कोट्टिकगण आदि का भी सम्बन्ध भद्रबाहु की अचेलक निर्ग्रन्थपरम्परा से मानना अयुक्तिमत् प्रतीत नहीं होता। अतः जिन प्रतिमाओं पर उनका उल्लेख है, वे दिगम्बर और अर्धफालक दोनों में से किसी भी सम्प्रदाय की हो सकती हैं। यह अवश्य है कि अर्धफालक-सम्प्रदाय आगे चलकर श्वेताम्बरों में विलीन हो गया।
यतः अर्धफालक-सम्प्रदाय दिगम्बर-सम्प्रदाय से ही उद्भूत हुआ था, और श्वेताम्बरों के विपरीत वह नग्न जिनप्रतिमाओं के निर्माण, प्रतिष्ठापन एवं दर्शन-पूजन को अनुचित नहीं मानता था, न ही इससे उसके किसी सिद्धान्त का विरोध होता था, अतः दिगम्बर-जिनप्रतिमाओं को भी उसने दिगम्बरों से ही अपनाया था। इसलिए ४५. क-Dr. U. P. Shah : Studies in Jain Art, pp.8-9.
ख-डॉ० हीरालाल जैन : भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान/प्र.३५०-३५१ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org