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________________ ४०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०५/प्र०२ अंचलिकायुक्त जिनप्रतिमा के कहीं दर्शन नहीं होते, न ही ऐसी कोई जिनप्रतिमा वहाँ है, जो न नग्न हो, न सवस्त्र। यह इस बात का प्रमाण है कि खण्डगिरि-उदयगिरि आरम्भ से ही दिगम्बर-परम्परा का तीर्थक्षेत्र रहा है, अत एव कलिंग-जिन-प्रतिमा का भी दिगम्बर-प्रतिमा होना सुनिश्चित है। इसकी पुष्टि अन्य प्रमाणों से भी होती है। उनका संकेत ७५ वर्ष पूर्व लिखे गये लेख में बाबू छोटेलाल जी जैन ने किया है। वे लिखते हैं-"इस २१०० वर्ष के प्राचीन जैन शिलालेख से स्पष्ट पता चलता है कि मगधाधिपति पुष्यमित्र के पूर्वाधिकारी राजा नन्द श्रीऋषभदेव की प्रतिमा कलिंगदेश से मगध ले गये थे और वह प्रतिमा खारवेल ने नन्दराजा के ३०० वर्ष बाद पुष्यमित्र से प्राप्त की। जब एक पूज्य वस्तु ३०० वर्षों से जिस राजघराने में सावधानी से रखी हुई चली आई है, तो अवश्य ही मगध के नन्द राजागण उसे पूजते थे। यदि और कोई वस्तु होती, तो इतने दीर्घकाल में अवश्य ही किसी न किसी तरह विलीन हो जाती। 'मुद्राराक्षस' नाटक में भी यह उल्लेख है कि नन्दराज और उसके मन्त्री 'राक्षस' को विश्वास में फाँसने के लिए एक दूत को क्षपणक बनाकर चाणक्य ने भेजा था। कोषग्रन्थों में 'क्षपणक' का अर्थ दिगम्बरजैन साधु है तथा 'महाभारत' में भी 'नग्नक्षपणक' का व्यवहार हुआ है। इससे नन्दराजा जैन थे और वह प्रतिमा (श्री आदिनाथ की) भी अवश्य दिगम्बर थी।" ३७ लोहानीपुर-जिनप्रतिमा पटना (बिहार) के लोहानीपुर मुहल्ले से प्राप्त जिनप्रतिमा भी अत्यन्त प्राचीन है। यह भी मस्तकविहीन है और बिलकुल वैसी ही है, जैसी हड़प्पा से प्राप्त जिनप्रतिमा है। (देखिये, इसी अध्याय के अन्त में विस्तृत सन्दर्भ) इसकी प्राचीनता पर प्रकाश डालते हुए सुप्रसिद्ध पुरातत्त्वविद् एवं इतिहासकार डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल लिखते हैं "सिन्धुघाटी में दो नग्न मूर्तियाँ मिली हैं। इनमें से एक कायोत्सर्गमुद्रा में स्थित पुरुषमूर्ति है। दूसरी को भी अब तक पुरुषमूर्ति कहा जाता है, किन्तु ध्यान से देखने पर ज्ञात होता है कि वह नृत्यमुद्रा में स्त्रीमूर्ति है। अभी पहली मूर्ति की पहचान किस प्रकार की जाय यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न बना ही रहता है। --- किन्तु जैन और कुछ जैनेतर विद्वान् भी पुरुषमूर्ति की नग्नता और कायोत्सर्गमुद्रा के आधार पर इसे ऐसी प्रतिमा समझते हैं, जिसका सम्बन्ध किसी तीर्थंकर से रहा है। किन्तु सिन्धु ३७. 'महाराज खारवेल'/ 'अनेकान्त'/ वर्ष १/ किरण ५ / चैत्र, वीर नि. सं.२४५६, पृ. २८६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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