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अ०५ / प्र० २
पुरातत्त्व में दिगम्बर- परम्परा के प्रमाण / ४०७ मिलते हैं । कुछ लोग भ्रम से उसे धनानन्द या घनानन्द भी कह देते हैं, किन्तु यह नाम उसका नहीं वरन् उसके ज्येष्ठ पुत्र युवराज हिरण्यगुप्त या हरिगुप्त का अपरनाम रहा प्रतीत होता है । इसका वंश उत्तरनन्द या नवनन्द - वंश कहलाता है। उसके आठ पुत्र थे और क्योंकि अपने अन्तिम वर्षों में उसने राज्यकार्य अपने उन धनानन्द आदि पुत्रों को ही सौंप दिया था, इस कारण भी इस वंश के लिए नवनन्द नाम प्रयुक्त होता है। ई० पू० ३६३ में महापद्म ने राज्य हस्तगत किया था और लगभग ३४ वर्ष राज्य करने के उपरान्त ई० पू० ३२९ में उसने राज्य कार्य से प्रायः अवकाश ले लिया था और राज्यकार्य अपने धनानन्द आदि आठ पुत्रों को संयुक्तरूप में सौंप दिया था, किन्तु सर्वकार्य उसके ही नाम से चलता था । बारह वर्ष पर्यन्त यह व्यवस्था चालू रही, अन्त में ई० पू० ३१७ के लगभग चाणक्य एवं चन्द्रगुप्त के कौशल से नन्दवंश का पतन हुआ और मौर्यवंश की स्थापना हुई । " ( भारतीय इतिहास एक दृष्टि / पृ.६२-६५) ।
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इस प्रकार नंदराज या नन्दिवर्धन ने कलिंग - जिनप्रतिमा का अपहरण ई० पू० ४२४ में किया था, जिससे सिद्ध होता है कि उसका निर्माण 'कलिंगजिन' नाम से प्रसिद्ध होने के लिए कम से कम ५० वर्ष पूर्व अर्थात् ४७५ ई० पू० में तो हुआ ही होगा । और उसके दिगम्बर- प्रतिमा होने में भी कोई सन्देह नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसका निर्माण चन्द्रगुप्त मौर्य के अस्तित्वकाल से काफी पहले हुआ था, जब कि श्वेताम्बर - शैली की प्राचीन जिनप्रतिमाओं (जो न नग्न होती थीं, न सवस्त्र) का निर्माण श्वेताम्बर - साहित्य के अनुसार सर्वप्रथम सम्राट् सम्प्रति ( ई० पू० २२३ - २१५) ने कराया था ३४ जो चन्द्रगुप्त मौर्य के पौत्र अशोक का पौत्र था । सम्प्रति के विषय में आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है कि उसने सारे जम्बूद्वीप में जैनमन्दिर बनवाये थे । ३५ वृहत्कल्पभाष्य में भी यही कहा गया है।
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इसके अतिरिक्त खण्डगिरि - उदयगिरि, परम्परा से दिगम्बरजैनों का ही तीर्थक्षेत्र रहा है और उसमें १२ वीं शताब्दी ई० तक नग्न जिनप्रतिमाओं का ही निर्माण होता आया है । गुफाओं की दीवारों पर पद्मासन और कायोत्सर्ग दोनों मुद्राओं में नग्न जिनबिम्ब ही उत्कीर्ण हैं, जब कि नग्नत्वरहित ( पुरुषचिह्नरहित ) अथवा देवदूष्ययुक्त या
३४. देखिए, इसी अध्याय का प्रकरण १ / शीर्षक २ / प्रवचनपरीक्षा / गाथा ६९ । ३५. चिमनलाल जैचंद शाह : उत्तरभारत में जैनधर्म / पृष्ठ १२५ ।
३६. “The Mauryan ruler Samprati is hailed by traditions as a great patron of the Jainas and builder of numerous (Jaina) temples. No archaeological evidence is however available to day. " Brhat-kalpa - Bhāsya, Vol. III, gāthās 3285-89, pp. 917-21. (Dr. U.P. Shah Studies in Jaina Art, p.6).
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